ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
मृ॒त्योः प॒दं यो॒पय॑न्तो॒ यदैत॒ द्राघी॑य॒ आयु॑: प्रत॒रं दधा॑नाः । आ॒प्याय॑मानाः प्र॒जया॒ धने॑न शु॒द्धाः पू॒ता भ॑वत यज्ञियासः ॥
स्वर सहित पद पाठमृ॒त्योः । प॒दम् । यो॒पय॑न्तः । यत् । ऐत॑ । द्राघी॑यः । आयुः॑ । प्र॒ऽत॒रम् । दधा॑नाः । आ॒प्याय॑मानाः । प्र॒ऽजया॑ । धने॑न । शु॒द्धाः । पू॒ताः । भ॒व॒त॒ । य॒ज्ञि॒या॒सः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मृत्योः पदं योपयन्तो यदैत द्राघीय आयु: प्रतरं दधानाः । आप्यायमानाः प्रजया धनेन शुद्धाः पूता भवत यज्ञियासः ॥
स्वर रहित पद पाठमृत्योः । पदम् । योपयन्तः । यत् । ऐत । द्राघीयः । आयुः । प्रऽतरम् । दधानाः । आप्यायमानाः । प्रऽजया । धनेन । शुद्धाः । पूताः । भवत । यज्ञियासः ॥ १०.१८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
विषय - मृत्यु-पद-योपन [शुद्ध-पूत - यज्ञिय ]
पदार्थ -
[१] गत मन्त्र में वर्णित (मृत्योः पदम्) = मृत्यु के 'स्वार्थ व भोगमय' मार्ग को (योपयन्तः) = परे धकेलते हुए व अपने से दूर करते हुए (यदा एत) = जब चलते हैं तो (द्राघीयः) = अत्यन्त दीर्घ व (प्रतरं) = उत्कृष्ट (आयु:) = जीवन को (दधानाः) = धारण करते हुए होते हैं । दीर्घ व उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त करने का मार्ग यही है कि हम देवयान से चलें, 'दान व ज्ञान' के मार्ग को अपनाएँ। [२] उत्कृष्ट जीवन का ही चित्रण करते हुए कहते हैं कि (प्रजया) = उत्तम सन्तान से तथा (धनेन) = धन से (आप्यायमानाः) = सब दिशाओं में उन्नति करते हुए (शुद्धा:) = शुद्ध अन्तःकरण वाले (पूताः) = यज्ञ व रोगों से शून्य शरीर वाले और (यज्ञियासः) = उत्तम कर्मों में प्रवृत्त (भवतः) = हो जाइये। सांसारिक जीवन में प्रजा व धन का स्थान स्पष्ट है धन के बिना संसार में एक कदम भी उठाना कठिन है । निर्धनता तो महान् पाप है । सन्तान भी प्रतिकूल होकर हमें समाज में अप्रतिष्ठा कराती है तो यह मरणान्तक कष्ट है। |
भावार्थ - भावार्थ- संसार में रहते हुए हम श्रेष्ठ सन्तान व शुद्ध पवित्र धन प्राप्त कर मृत्यु को दूर भगाते रहें ।
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