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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 182/ मन्त्र 1
ऋषिः - तपुर्मूर्धा बार्हस्पत्यः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
बृह॒स्पति॑र्नयतु दु॒र्गहा॑ ति॒रः पुन॑र्नेषद॒घशं॑साय॒ मन्म॑ । क्षि॒पदश॑स्ति॒मप॑ दुर्म॒तिं ह॒न्नथा॑ कर॒द्यज॑मानाय॒ शं योः ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॒स्पतिः॑ । न॒य॒तु॒ । दुः॒ऽगहा॑ । ति॒रः । पुनः॑ । ने॒ष॒त् । अ॒घऽशं॑साय । मन्म॑ । क्षि॒पत् । अश॑स्तिम् । अप॑ । दुः॒ऽम॒तिम् । ह॒न् । अथ॑ । क॒र॒त् । यज॑मानाय । शम् । योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिर्नयतु दुर्गहा तिरः पुनर्नेषदघशंसाय मन्म । क्षिपदशस्तिमप दुर्मतिं हन्नथा करद्यजमानाय शं योः ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पतिः । नयतु । दुःऽगहा । तिरः । पुनः । नेषत् । अघऽशंसाय । मन्म । क्षिपत् । अशस्तिम् । अप । दुःऽमतिम् । हन् । अथ । करत् । यजमानाय । शम् । योः ॥ १०.१८२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 182; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 40; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 40; मन्त्र » 1
विषय - शं योः
पदार्थ -
[१] (दुर्गहा) = सब दुर्गमनों का विनाश करनेवाला (बृहस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु [ब्रह्मणस्पति] मेरे सब दोषों [दुर्गों ] को (तिरः नयतु) = दूर करे, तिरस्कर्त्तव्य पापों को विनष्ट करे । (पुनः) = फिर (अघसंसाय) = बुराई का शंसन करनेवाले के लिये (मन्म) = ज्ञान को नेषत् प्राप्त करायें। ज्ञान के द्वारा उनके विचारों में परिवर्तन हो और वे बुरे को बुरा ही देखने लगें । सद्बुद्धि को प्राप्त करके ये भविष्य में आपका शंसन न करें। [२] वे प्रभु (अशस्तिं क्षिपत्) = अप्रशस्त बात को हमारे से दूर करें । (दुर्मतिम्) = बुरी बुद्धि को (अप हन्) = नष्ट करें। (अथा) = और अब (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिये (शम्) = अग्नि को तथा (योः) = भयों के यावन को (करत्) = करें । पूर्वार्ध में 'दुर्गहा तिरः नमतु' से जो प्रार्थना थी, वही उत्तरार्ध में 'क्षिपत् अशस्तिं' इन शब्दों से हुई है। ' अघशंसाय मन्म नेषत् ' यह प्रार्थना 'दुर्मतिं अप अहन्' इन शब्दों में की गई है। अशान्ति के दूर होने से 'शं' [शान्ति] की प्राप्ति होती है तथा दुर्मति के दूर होने से और सुबुद्धि की प्राप्ति से [योः] भयों का यावन [ दूरीकरण] होता है ।
भावार्थ - भावार्थ- बुराइयों का तिरस्करण करके व अशान्ति को परे फेंककर हम शान्त जीवनवाले हों । दुर्मति को दूर करके और सुबुद्धि को प्राप्त करके हम निर्भयता को प्राप्त हों ।
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