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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 185/ मन्त्र 3
ऋषिः - सत्यधृतिर्वारुणिः
देवता - अदितिः (स्वस्तययनम्)
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यस्मै॑ पु॒त्रासो॒ अदि॑ते॒: प्र जी॒वसे॒ मर्त्या॑य । ज्योति॒र्यच्छ॒न्त्यज॑स्रम् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मै॑ । पु॒त्रासः॑ । अदि॑तेः । प्र । जी॒वसे॑ । मर्त्या॑य । ज्योतिः॑ । यच्छ॑न्ति । अज॑स्रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मै पुत्रासो अदिते: प्र जीवसे मर्त्याय । ज्योतिर्यच्छन्त्यजस्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मै । पुत्रासः । अदितेः । प्र । जीवसे । मर्त्याय । ज्योतिः । यच्छन्ति । अजस्रम् ॥ १०.१८५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 185; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 43; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 43; मन्त्र » 3
विषय - ज्ञान प्राप्ति व उत्कृष्ट जीवन
पदार्थ -
[१] गत मन्त्र के अनुसार अघशंस रिपुओं के बहकावे में न आनेवाला व्यक्ति वह होता है (यस्मै) = जिस (मर्त्याय) = मनुष्य के लिये (अदितेः पुत्रासः) = अदिति के पुत्र, अर्थात् आदित्य प्रकृति, जीव व परमात्मा' तीनों का ज्ञान प्राप्त करनेवाले विद्वान् (अजस्त्रम्) = निरन्तर (ज्योतिः) = ज्ञान को (यच्छन्ति) = देते हैं । [२] इन आदित्यों से ज्ञान को प्राप्त करता हुआ यह व्यक्ति कभी पापों में नहीं फँसता । यह (प्र जीवसे) = प्रकृष्ट जीवन के लिये होता है । उन ज्ञानियों से निरन्तर ज्ञान को प्राप्त करता हुआ वह उत्तम ही जीवन बिताता है ।
भावार्थ - भावार्थ- हम आदित्य विद्वानों से ज्ञान को प्राप्त करें और उत्कृष्ट जीवन बितायें। सूक्त का भाव यही है कि हमारा जीवन 'स्नेह, दानवृत्ति व निष्पापता' वाला हो। इस उत्कृष्ट जीवन को बिताने के लिये आवश्यक है कि हम पूर्ण स्वस्थ हों । स्वास्थ्य के लिये 'उल' [उल् to go ] निरन्तर गतिशील हों तथा वातायन - वात को अपना अयन बनायें, सदा शुद्ध वायु के सम्पर्क में रहें। यह 'उल वातायन' प्रार्थना करता है कि-
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