ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
अस॒त्सु मे॑ जरित॒: साभि॑वे॒गो यत्सु॑न्व॒ते यज॑मानाय॒ शिक्ष॑म् । अना॑शीर्दाम॒हम॑स्मि प्रह॒न्ता स॑त्य॒ध्वृतं॑ वृजिना॒यन्त॑मा॒भुम् ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑त् । सु । मे॒ । ज॒रि॒त॒रिति॑ । सः । अ॒भि॒ऽवे॒गः । यत् । सु॒न्व॒ते । यज॑मानाय । शिक्ष॑म् । अना॑शीःऽदाम् । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । प्र॒ऽह॒न्ता । स॒त्य॒ऽध्वृत॑म् । वृ॒जि॒न॒ऽयन्त॑म् । आ॒भुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असत्सु मे जरित: साभिवेगो यत्सुन्वते यजमानाय शिक्षम् । अनाशीर्दामहमस्मि प्रहन्ता सत्यध्वृतं वृजिनायन्तमाभुम् ॥
स्वर रहित पद पाठअसत् । सु । मे । जरितरिति । सः । अभिऽवेगः । यत् । सुन्वते । यजमानाय । शिक्षम् । अनाशीःऽदाम् । अहम् । अस्मि । प्रऽहन्ता । सत्यऽध्वृतम् । वृजिनऽयन्तम् । आभुम् ॥ १०.२७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
विषय - 'सुन्वन् यजमान
पदार्थ -
[१] प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि 'वसुक्र ऐन्द्रः ' है । उत्तम पदार्थों को निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों को 'वसु' कहते हैं, जो इन वसुओं का श्रवण करता है, वह 'वसुक्र' कहलाता है। यह 'ऐन्द्रः ' इन्द्र की ओर चलनेवाला होता है। यदि हमारा झुकाव 'इन्द्र'- प्रभु की ओर न रहकर प्रकृति की ओर हो जाए तो हम 'वसुक्र' ही न रहें। प्रकृति में फँसना 'निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों के ह्रास' का कारण होता है । [२] इस वसुक्र से प्रभु कहते हैं कि हे (जरितः) = स्तोत: ! (मे) = मेरा (स) = वह (सु) = शोभन (अभिवेग) = मन का प्रबल भाव (असत्) = है (यत्) = कि (सुन्वते) = अपने शरीर में (सोम) = वीर्य का सम्पादन करनेवाले तथा (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए (शिक्षम्) = सब उत्तम वसुओं को दूँ। प्रभु ही सब वसुओं के स्वामी है। ये वसु उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो 'सुन्वन् व यजमान' बनते हैं। 'सुन्वन्' अपने अन्दर शक्ति का सम्पादन करनेवाला है, 'यजमान' लोकहित के लिये यज्ञात्मक कर्मों को करनेवाला है । [३] जहाँ प्रभु 'सुन्वन् यजमान' को सब उत्तम वस्तुएँ प्राप्त कराते हैं वहाँ वे प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं (प्रहन्ता) = प्रकर्षेण मारनेवाला (अस्मि) = हूँ । किसको ? [क] (अनाशीर्दाम्) = जो इच्छापूर्वक, दिलखोलकर दान नहीं करता। जिसकी देने की वृत्ति नहीं है, देव न होकर जो असुर है, देता नहीं, अपने मुँह में ही डालता है। [ख] (सत्यध्वृतम्) = जो सत्य की हिंसा करता है, अनृत भाषण करता है। [ग] (वृजिनायन्तम्) = [पापं कर्तुम् इच्छन्तम्] जो पाप करने की इच्छा करता है, जो पाप की वृत्तिवाला है, जिसका झुकाव धर्म की ओर न होकर अधर्म की ओर है और जो [घ] (आभुम्) = [ आ-भवति] सब चीजों का मालिक होना चाहता है, 'ये भी मुझे मिल जाये, ये भी मुझे मिल जाये' यही जो सदा चाहता रहता है। जो सारी चीजों को व्याप्त करके जबर्दस्त परिग्रही बन जाता है।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु 'सुन्वन् यजमान' को सब कुछ देते हैं तथा 'अनाशीर्दा, सत्यध्वृत्, वृजिनायन्, आभु' को नष्ट करते हैं।
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