ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
इ॒नो रा॑जन्नर॒तिः समि॑द्धो॒ रौद्रो॒ दक्षा॑य सुषु॒माँ अ॑दर्शि । चि॒किद्वि भा॑ति भा॒सा बृ॑ह॒तासि॑क्नीमेति॒ रुश॑तीम॒पाज॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒नः । रा॒ज॒न् । अ॒र॒तिः । सम्ऽइ॑द्धः । रौद्रः॑ । दक्षा॑य । सु॒सु॒ऽमान् । अ॒द॒र्शि॒ । चि॒कित् । वि । भा॒ति॒ । बृ॒ह॒ता । असि॑क्नीम् । ए॒ति॒ । रुश॑तीम् । अ॒प॒ऽअज॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इनो राजन्नरतिः समिद्धो रौद्रो दक्षाय सुषुमाँ अदर्शि । चिकिद्वि भाति भासा बृहतासिक्नीमेति रुशतीमपाजन् ॥
स्वर रहित पद पाठइनः । राजन् । अरतिः । सम्ऽइद्धः । रौद्रः । दक्षाय । सुसुऽमान् । अदर्शि । चिकित् । वि । भाति । बृहता । असिक्नीम् । एति । रुशतीम् । अपऽअजन् ॥ १०.३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
विषय - इन स्वामी
पदार्थ -
गतमन्त्र के अन्तिम शब्दों के अनुसार प्रभु को अपने में समिद्ध करनेवाला (विभाति) = विशेष रूप से चमकता है। इसी को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि- (राजन्) = [राजू दीप्तौ ] हे दीप्त जीवन वाले ! अथवा [regulated] व्यवस्थित जीवन वाले जीव ! तू (इनः) = अपना ईश्वर होता है, इन्द्रियों के वश में न होकर, उनको अपने वश में करनेवाला होता है। (अरतिः) = विषयों के प्रति तू रुचि वाला नहीं होता [ अ रतिः] अथवा तू निरन्तर गतिशील होता है [ अरतिः = ऋगतौ ] (समिद्ध:) = ज्ञान की दीप्ति वाला होता है। ज्ञानदीप्त होकर (रौद्रः) = तू कामादि शत्रुओं के लिये रुद्ररूप धारण करता है, इनको अपने ज्ञान ज्वाला में दग्ध करनेवाला होता है। तू दक्षाय सब प्रकार उन्नति व बलवृद्धि के लिये (सुषुमान्) = [सुष्ठु शोभते इति सुषुः सोमः सा० ] सोम का शरीर में रक्षण करनेवाला (अदर्शि) = जाना जाता है। वस्तुतः इस सोमरक्षण से ही यह 'त्रित' (चिकित्) = विशिष्ट ज्ञानी बनकर (बृहता भासा) = विशाल व वृद्धि की कारणभूत ज्ञानज्योति से (विभाति) = चमकता है तथा (रुशती) = अकल्याणी [Hurting, displeased] (असिक्नीम्) = कृष्णवर्ण असत्य वाणी को (अपाजन्) = अपने से दूर फेंकता हुआ (एति) = यह प्रभु के समीप प्राप्त होता है। 'केतपू: केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु'- इस प्रार्थना के अनुसार यह ज्ञान को तो दीप्त करता है तथा वाणी को अत्यन्त मधुर बनाता है। 'रुशती' वह अकल्याणी वाक् है जो कि दूसरे के दिल को दुखाती है 'असिक्री' इसीलिए कि वह शुद्धता को लिए हुए नहीं होती। जो 'इन' है, अपनी इन्द्रियों का स्वामी है । वह कभी भी ऐसी वाणी का प्रयोग नहीं करता ।
भावार्थ - भावार्थ- हम जितेन्द्रिय बनें, विषयों के प्रति रुचि वाले न हों, ज्ञानदीप्त होकर वासनादि शत्रुओं के लिए रुद्र बनें। सोमरक्षण द्वारा शक्ति का वर्धन करें। ज्ञान से दीप्त हों, अकल्याणी वाणी से दूर रहें। इस प्रकार प्रभु के समीप हों ।
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