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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - आप अपान्नपाद्वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र दे॑व॒त्रा ब्रह्म॑णे गा॒तुरे॑त्व॒पो अच्छा॒ मन॑सो॒ न प्रयु॑क्ति । म॒हीं मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य धा॒सिं पृ॑थु॒ज्रय॑से रीरधा सुवृ॒क्तिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । दे॒व॒ऽत्रा । ब्रह्म॑णे । गा॒तुः । ए॒तु॒ । अ॒पः । अच्छ॑ । मन॑सः । न । प्रऽयु॑क्ति । म॒हीम् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धा॒सिम् । पृ॒थु॒ऽज्रय॑से । री॒र॒ध॒ । सु॒ऽवृ॒क्तिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र देवत्रा ब्रह्मणे गातुरेत्वपो अच्छा मनसो न प्रयुक्ति । महीं मित्रस्य वरुणस्य धासिं पृथुज्रयसे रीरधा सुवृक्तिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । देवऽत्रा । ब्रह्मणे । गातुः । एतु । अपः । अच्छ । मनसः । न । प्रऽयुक्ति । महीम् । मित्रस्य । वरुणस्य । धासिम् । पृथुऽज्रयसे । रीरध । सुऽवृक्तिम् ॥ १०.३०.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि 'कवष ऐलूष' है। 'कवष' शब्द का अर्थ है 'ढाल'। जैसे एक योद्धा ढाल से अपने पर होनेवाले वार की रक्षा करता है इसी प्रकार यह अपने पर होनेवाले वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचाता है। ढाल का संकेत 'ऐलूष' शब्द में मिलता है। 'इडा' स्तुति को कहते हैं । स्तुति के द्वारा 'स्पति' अपने पापों का अन्त करता है, सो ऐडूष - ऐलूष कहलाता है । यह कवष ऐलूष (गातुः) = इस जीवन में यात्री बनता हुआ (ब्रह्मणे) = ब्रह्म की प्राप्ति के लिये (देवत्रा) = देवों में (प्र एतु) = प्रकर्षेण आये । ब्रह्म की प्राप्ति के लिये यही तो चाहिये कि हम अपने में दैवी सम्पत्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करें। जितना हम अपने में दिव्यगुणों का वर्धन करेंगे उतना ही उस परमदेव के समीप पहुँचते जाएँगे। [२] इन दिव्यगुणों के वर्धन के लिये यह कवष ऐलूष (अपः) = रेतः कणों की अच्छा और (प्र एतु) = प्रकर्षेण आये। शरीर में रेतः कणों की रक्षा के लिये पूर्ण प्रयत्न करे। इन रेतः कणों के रक्षण से ही इसका शरीर नीरोग होता है और मन वासनाओं से शून्य । [३] रेतःकणों की रक्षा के लिये आवश्यक है कि मन सांसारिक विषयों की ओर न जाये । इसी बात को मन्त्र में इस तरह कहते हैं कि (मनसो न प्रयुक्ति) = मन के किसी भी विषय में प्रयुक्ति = आसक्त न होने के द्वारा। मन को विषयों से ऊपर उठाकर ही हम रेतःकणों के रक्षण में समर्थ होते हैं। ये सुरक्षित रेतः कण हमारे मनों को सद्गुणों से अलंकृत करते हैं। [४] मन को विषयों में आसक्त न होने देने के लिये (मित्रस्य) = मित्र देवता के और (वरुणस्य) = वरुणदेव के (महीं धासिम्) = महनीय अन्न को [एतु] प्राप्त हो। हम उस अन्न का प्रयोग करें, जो हमें सबके साथ स्नेह करनेवाला तथा द्वेष के निवारण करनेवाला बनाये [मित्र - वरुण] । अन्न से ही तो मन का निर्माण होता है जैसा अन्न खायेंगे वैसा ही मन बनेगा। सात्त्विक अन्न के सेवन से मन सात्त्विक होगा। तभी हम वासनाओं से न आक्रान्त होने पर सोम का रक्षण कर पायेंगे। [५] इस सात्त्विक अन्न के सेवन के द्वारा मनो निरोध करते हुए 'कवष ऐलूष' को चाहिए कि वह (पृथुजयसे) = विशाल वेगवाले उस प्रभु के लिये, मन से भी अधिक वेगवान् उस प्रभु के लिये (सुवृक्तिम्) = उत्तमता से दोषवर्जनरूप स्तुति को (रीरधा) = सिद्ध करे। यह प्रभु स्तवन भी उसे लक्ष्य स्थान पर पहुँचानेवाला होगा।

    भावार्थ - भावार्थ - इस प्रस्तुत मन्त्र में एक बड़ा सुन्दर कार्यकारणभाव का क्रम देखते हैं कि—[क] हम अपने को यात्री समझते हुए ब्रह्म को अपना लक्ष्य स्थान जानें, [२] इसके लिये अपने में दिव्य गुणों का वर्धन करें, [ख] दिव्यगुणों के वर्धन के लिये रेतःकणों का रक्षण करें, [ग] उसके लिये मन को विषयों में आसक्त न होने दें, [घ] इसके लिये सात्त्विक भोजन करें और उस प्रभु के लिये दोषवर्जनरूप स्तुति को सिद्ध करें।

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