ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 38/ मन्त्र 4
यो द॒भ्रेभि॒र्हव्यो॒ यश्च॒ भूरि॑भि॒र्यो अ॒भीके॑ वरिवो॒विन्नृ॒षाह्ये॑ । तं वि॑खा॒दे सस्नि॑म॒द्य श्रु॒तं नर॑म॒र्वाञ्च॒मिन्द्र॒मव॑से करामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयः । द॒भ्रेभिः । हव्यः॑ । यः । च॒ । भूरि॑ऽभिः । यः । अ॒भीके॑ । व॒रि॒वः॒ऽवित् । नृ॒ऽसह्ये॑ । तम् । वि॒ऽखा॒दे । सस्नि॑म् । अ॒द्य । श्रु॒तम् । नर॑म् । अ॒र्वाञ्च॑म् । इन्द्र॑म् । अव॑से । क॒रा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो दभ्रेभिर्हव्यो यश्च भूरिभिर्यो अभीके वरिवोविन्नृषाह्ये । तं विखादे सस्निमद्य श्रुतं नरमर्वाञ्चमिन्द्रमवसे करामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयः । दभ्रेभिः । हव्यः । यः । च । भूरिऽभिः । यः । अभीके । वरिवःऽवित् । नृऽसह्ये । तम् । विऽखादे । सस्निम् । अद्य । श्रुतम् । नरम् । अर्वाञ्चम् । इन्द्रम् । अवसे । करामहे ॥ १०.३८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 38; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
विषय - 'सस्त्रि- श्रुत-नर'
पदार्थ -
[१] (नृषाह्ये) = वीर पुरुषों से ही सहने योग्य, (विखादे) = कायरों को खा जानेवाले (अभीके) = संग्राम में हम (तम्) = उस (सस्निम्) = उपासकों के जीवनों को पवित्र बनानेवाले (श्रुतम्) = प्रसिद्ध (नरम्) = हमें आगे ले चलनेवाले प्रभु को अद्य आज अवसे रक्षण के लिये (अर्वाञ्चम्) = अपने अभिमुख (करामहे) = करते हैं, अर्थात् उसकी आराधना करते हैं, (यः) = जो (दभ्रेभिः) = अल्पसंख्यावालों से (हव्यः) = पुकारने योग्य होता है (यः च) = और जो (भूरिभिः) = बहुतों से भी पुकारा जाता है और (यः) = जो प्रभु (वरिवोवित्) = सब वरणीय धनों को प्राप्त करानेवाले हैं । [२] संग्राम में सब कोई प्रभु का आराधन करता है। प्रभु के आराधन से ही वह शक्ति प्राप्त होती है जो हमें संग्राम में विजयी बनाती है । यह संग्राम में वीरों के लिये सह्य होता है तो कायरों को तो खा ही जाता है, सो यह 'नृषाह्य व विखाद' है। प्रभु हमारे जीवनों व मनों को पवित्र करते हैं, वे 'सस्त्रि' हैं, यह पवित्रता ही विजय में सहायक होती है ।
भावार्थ - भावार्थ - संग्राम में हम प्रभु का स्मरण करें, वे हमें पवित्रता देकर अवश्य विजयी बनायेंगे ।
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