ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
यो वां॒ परि॑ज्मा सु॒वृद॑श्विना॒ रथो॑ दो॒षामु॒षासो॒ हव्यो॑ ह॒विष्म॑ता । श॒श्व॒त्त॒मास॒स्तमु॑ वामि॒दं व॒यं पि॒तुर्न नाम॑ सु॒हवं॑ हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयः । वा॒म् । परि॑ऽज्मा । सु॒ऽवृत् । अ॒श्वि॒ना॒ । रथः॑ । दो॒षाम् । उ॒षसः॑ । हव्यः॑ । ह॒विष्म॑ता । श॒श्व॒त्ऽत॒मासः॑ । तम् । ऊँ॒ इति॑ । वा॒म् । इ॒दम् । व॒यम् । पि॒तुः । न । नाम॑ । सु॒ऽहव॑म् । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वां परिज्मा सुवृदश्विना रथो दोषामुषासो हव्यो हविष्मता । शश्वत्तमासस्तमु वामिदं वयं पितुर्न नाम सुहवं हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयः । वाम् । परिऽज्मा । सुऽवृत् । अश्विना । रथः । दोषाम् । उषसः । हव्यः । हविष्मता । शश्वत्ऽतमासः । तम् । ऊँ इति । वाम् । इदम् । वयम् । पितुः । न । नाम । सुऽहवम् । हवामहे ॥ १०.३९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
विषय - 'परिज्मा सुवृत् रथ'
पदार्थ -
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (यः) = जो (वाम्) = आप दोनों का (परिज्मा) = सर्वतो (गन्ता) = विविध कार्यों में व्याप्त होनेवाला (सुवृत्) = शोभन रूप में चलनेवाला (रथ:) = यह शरीर रूप रथ है, वह (दोषां उषासः) = दिन-रात, अर्थात् सदा (हविष्मता) = त्यागपूर्वक अदन करनेवाले पुरुष से (हव्यः) = पुकारने के योग्य है, प्रार्थनीय है, चाहने योग्य है। हम त्यागपूर्वक अदन करनेवाले बने इससे यह शरीर रूप रथ सदा शोभन-स्थिति में रहेगा [सुवृत्] और यह विविध कार्यों के करने के क्षम बना रहेगा [परिज्मा]। [२] हे अश्विनी देवो ! (वाम्) = आपके (तं अस्तु) = उस इस शरीर को (शश्वत्तमासः) [शश् प्लुतगतौ] = अत्यन्त प्लुतगतिवाले, स्फूर्तिवाले आलस्य से शून्य (वयम्) = हम (हवामहे) = पुकारते हैं, ऐसे शरीर की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करते हैं। उसी प्रकार पुकारते हैं (न) = जैसे (पितुः) = उस परमपिता परमात्मा के (सुहवंनाम) = सुगमता से पुकारने योग्य नाम को। प्रभु के नाम का जप करते हुए शरीर रूप सुन्दर रथ के लिये आराधना करते हैं। हमारा यह शरीर रूप रथ निरन्तर हमें जीवनयात्रा में आगे ले चले, हम क्रियाशील हों और प्रभु का स्मरण करनेवाले बनें ।
भावार्थ - भावार्थ- हमारा शरीर रूप रथ परितो गन्ता व शोभन हो और हम प्रभु के नाम का सतत स्मरण करें।
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