ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
आ या॒त्विन्द्र॒: स्वप॑ति॒र्मदा॑य॒ यो धर्म॑णा तूतुजा॒नस्तुवि॑ष्मान् । प्र॒त्व॒क्षा॒णो अति॒ विश्वा॒ सहां॑स्यपा॒रेण॑ मह॒ता वृष्ण्ये॑न ॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒तु॒ । इन्द्रः॑ । स्वऽप॑तिः । मदा॑य । यः । धर्म॑णा । तू॒तु॒जा॒नः । तुवि॑ष्मान् । प्र॒ऽत्व॒क्षा॒णः । अति॑ । विश्वा॑ । सहां॑सि । अ॒पा॒रेण॑ । म॒ह॒ता । वृष्ण्ये॑न ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यात्विन्द्र: स्वपतिर्मदाय यो धर्मणा तूतुजानस्तुविष्मान् । प्रत्वक्षाणो अति विश्वा सहांस्यपारेण महता वृष्ण्येन ॥
स्वर रहित पद पाठआ । यातु । इन्द्रः । स्वऽपतिः । मदाय । यः । धर्मणा । तूतुजानः । तुविष्मान् । प्रऽत्वक्षाणः । अति । विश्वा । सहांसि । अपारेण । महता । वृष्ण्येन ॥ १०.४४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - स्व- पति
पदार्थ -
[१] प्रभु कहते हैं कि (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (आयातु) = मेरे समीप आये। जैसे एक बच्चा पिता की गोद में बैठता है, उसी प्रकार यह जितेन्द्रिय पुरुष प्रभु की गोद में बैठनेवाला हो । जो इन्द्र 'स्व- पति'= अपना स्वामी है, यह इन्द्रियों, मन व बुद्धि का दास न होकर इनका अधिष्ठाता है। (मदाय) = यह स्वपति सदा हर्ष के लिये होता है, इसका जीवन उल्लासमय होता है । [२] मेरे समीप वह इन्द्र आये (यः) = जो (धर्मणा) = लोकधारण के हेतु से (तूतुजानः) = [त्वरमाण: नि० ६ । २० ] शीघ्रता से कार्य करनेवाला होता है। इसका जीवन क्रियामय होता है और इसकी प्रत्येक क्रिया लोकधारण के उद्देश्य से होती है । [३] यह (तुविष्मान्) = [groweh streingth intellect] उन्नति, शक्ति व बुद्धिवाला होता है। सदा उन्नतिपथ पर चलता है, शक्ति को स्थिर रखता है और अपनी बुद्धि का परिमार्जन करने का प्रयत्न करता है। [४] (अपारेण महता) = बहुत अधिक (वृष्ण्येन) = बल के द्वारा (विश्वा सहांसि) = सब सहनशक्तियों को (अति प्रत्वक्षाण:) = बहुत ही सूक्ष्म करनेवाला होता है। यह अपने में सहनशक्ति को बढ़ाता है। सबल व्यक्ति ही सहनशील होता है। निर्बल कुछ चिड़चिड़ा-सा हो जाता है। यह चिड़चिड़े स्वभाववाला व्यक्ति प्रभु को पाने का अधिकारी नहीं होता ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु की प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि हम 'इन्द्र- स्वपति - धारणात्मक कर्मों को करनेवाले, उन्नतिशील तथा सबल बनकर सहनशील' बनें ।
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