ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
यमैच्छा॑म॒ मन॑सा॒ सो॒३॒॑ऽयमागा॑द्य॒ज्ञस्य॑ वि॒द्वान्परु॑षश्चिकि॒त्वान् । स नो॑ यक्षद्दे॒वता॑ता॒ यजी॑या॒न्नि हि षत्स॒दन्त॑र॒: पूर्वो॑ अ॒स्मत् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । ऐच्छा॑म । मन॑सा । सः । अ॒यम् । आ । अ॒गा॒त् । य॒ज्ञस्य॑ । वि॒द्वान् । परु॑षः । चि॒कि॒त्वान् । सः । नः॒ । य॒क्ष॒त् । दे॒वऽता॑ता । यजी॑यान् । नि । हि । स॒त्स॒त् । अन्त॑रः । पूर्वः॑ । अ॒स्मत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यमैच्छाम मनसा सो३ऽयमागाद्यज्ञस्य विद्वान्परुषश्चिकित्वान् । स नो यक्षद्देवताता यजीयान्नि हि षत्सदन्तर: पूर्वो अस्मत् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । ऐच्छाम । मनसा । सः । अयम् । आ । अगात् । यज्ञस्य । विद्वान् । परुषः । चिकित्वान् । सः । नः । यक्षत् । देवऽताता । यजीयान् । नि । हि । सत्सत् । अन्तरः । पूर्वः । अस्मत् ॥ १०.५३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु दर्शन
पदार्थ -
[१] (यम्) = जिस अग्नि नामक प्रभु को हम (मनसा) = मन से अथवा मनन के द्वारा (ऐच्छाम) = प्राप्त करना चाहते थे (सः अयम्) = वह यह अग्नि (आगाद्) = आ गया है। प्रभु का हमें साक्षात्कार हुआ है । (यज्ञस्य विद्वान्) = वे प्रभु सब यज्ञों को जाननेवाले हैं। हृदय में स्थित हुए हुए वे प्रभु हमें इन यज्ञों की प्रेरणा देते रहते हैं । (परुषः चिकित्वान्) = वे हमारे प्रत्येक पर्व को जानते हैं । सामान्य भाषा में कहें तो वे प्रभु हमारी रग-रग से वाकिफ़ हैं। हमें पूर्ण तरह से जानते हुए वे प्रभु हमें यथोचित प्रेरणा व शक्ति प्राप्त कराते रहते हैं । [२] (स) = वे प्रभु (नः) = हमें (देवताता) = यज्ञों में (यक्षत्) = प्राप्त होते हैं [यज संगतिकरणे] । जब हम यज्ञशील बनते हैं तो हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनते हैं । यज्ञों से ही प्रभु का सच्चा उपासन होता है। (यजीयान्) = वे प्रभु सर्वाधिक पूजनीय हैं। [२] वे प्रभु तो (हि) = निश्चय से (निषत्) = हमारे अन्दर आसीन हैं, (सद् अन्तरः) = सत्यस्वरूप हैं और सबके अन्दर निवास करनेवाले हैं। वे (अस्मत् पूर्वः) = हम सब से पहले हैं। 'स पूर्णेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्'- काल से अनवच्छिन्न होने के कारण प्राचीन गुरुओं के भी गुरु हैं, हम सबसे पहले होते हुए वे सर्वप्रथम वेदज्ञान देनेवाले हैं।
भावार्थ - भावार्थ- सृष्टि से पूर्व होते हुए वे प्रभु हम सब के अन्दर विद्यमान हैं, हमें उत्तम कर्मों का ज्ञान देते हैं। इन यज्ञात्मक कर्मों से ही वे उपासनीय हैं।
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