ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒दं त॒ एकं॑ प॒र ऊ॑ त॒ एकं॑ तृ॒तीये॑न॒ ज्योति॑षा॒ सं वि॑शस्व । सं॒वेश॑ने त॒न्व१॒॑श्चारु॑रेधि प्रि॒यो दे॒वानां॑ पर॒मे ज॒नित्रे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । ते॒ । एक॑म् । प॒रः । ऊँ॒ इति॑ । ते॒ । एक॑म् । तृ॒तीये॑न । ज्योति॑षा । सम् । वि॒श॒स्व॒ । स॒म्ऽवेश॑ने । त॒न्वः॑ । चारुः॑ । ए॒धि॒ । प्रि॒यः । दे॒वाना॑म् । प॒र॒मे । ज॒नित्रे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं त एकं पर ऊ त एकं तृतीयेन ज्योतिषा सं विशस्व । संवेशने तन्व१श्चारुरेधि प्रियो देवानां परमे जनित्रे ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । ते । एकम् । परः । ऊँ इति । ते । एकम् । तृतीयेन । ज्योतिषा । सम् । विशस्व । सम्ऽवेशने । तन्वः । चारुः । एधि । प्रियः । देवानाम् । परमे । जनित्रे ॥ १०.५६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - तीन ज्योतियाँ
पदार्थ -
[१] प्रभु अपने स्तोता 'बृहदुक्थ' से कहते हैं कि (इदम्) = यह (ते) = तेरी (एकम्) = प्रथम ज्योति है। शरीर में यह ('वैश्वानर') = अग्नि [जाठराग्नि] के रूप से रहती है, यह ठीक से प्रज्वलित रहकर शरीर के स्वास्थ्य का कारण बनती है। स्वास्थ्य के तेज से यह बृहदुक्थ चमक उठता है। [२] (उ) = और (ते) = तेरी (एकम्) = एक ज्योति (परः) = और अधिक उत्कृष्ट है । यह हृदय की निर्मलता का कारण बनती है। इस ज्योति के कारण राग-द्वेष के अन्धकार से ऊपर उठकर तू प्रकाशमय व उल्लासमय हृदयवाला होता है। तू सब के साथ एकत्व के अनुभव से तेजस्वी बन जाता है। [३] अब तू मस्तिष्क में निवास करनेवाली (तृतीयेन) = तीसरी ज्ञानरूप (ज्योतिषा) = ज्योति के साथ (संविशस्व) = जीवन को आनन्दमय बनानेवाला हो। प्राज्ञ बनकर तू उत्कृष्ट आनन्द का अनुभव कर । [४] इस प्रकार (तन्व:) = शरीर के संवेशने इन तीन ज्योतियों से युक्त करने पर (चारु: एधि) = तू अत्यन्त सुन्दर जीवनवाला हो। वास्तव में इससे अधिक सुन्दर जीवन क्या हो सकता है कि शरीर स्वास्थ्य की ज्योति से चमकता हो, मन नैर्मल्य के कारण प्रसाद व उल्लासवाला हो और मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण हो । तू इस (परमे जनित्रे) = सर्वोत्कृष्ट विकास के होने पर (देवानाम्) = सब देवों का (प्रियः) = प्रिय हो । सब देव तेरे साथ अनुकूलतावाले हों। बाह्य देवों का अन्दर के देवों के साथ आनुकूल्य ही शान्ति है । इस शान्ति में ही सुख है ।
भावार्थ - भावार्थ - शरीर, मन व मस्तिष्क की ज्योतियों को सिद्ध करके हम परम विकास को सिद्ध करें और अपने जीवन को देवों की अनुकूलता में शान्त व सुखी बनाएँ।
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