ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 67/ मन्त्र 2
ऋ॒तं शंस॑न्त ऋ॒जु दीध्या॑ना दि॒वस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒राः । विप्रं॑ प॒दमङ्गि॑रसो॒ दधा॑ना य॒ज्ञस्य॒ धाम॑ प्रथ॒मं म॑नन्त ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तम् । शंस॑न्तः । ऋ॒जु । दीध्या॑नाः । दि॒वः । पु॒त्रासः॑ । असु॑रस्य । वी॒राः । विप्र॑म् । प॒दम् । अङ्गि॑रसः । दधा॑नाः । य॒ज्ञस्य॑ । धाम॑ । प्र॒थ॒मम् । म॒न॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतं शंसन्त ऋजु दीध्याना दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः । विप्रं पदमङ्गिरसो दधाना यज्ञस्य धाम प्रथमं मनन्त ॥
स्वर रहित पद पाठऋतम् । शंसन्तः । ऋजु । दीध्यानाः । दिवः । पुत्रासः । असुरस्य । वीराः । विप्रम् । पदम् । अङ्गिरसः । दधानाः । यज्ञस्य । धाम । प्रथमम् । मनन्त ॥ १०.६७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 67; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
विषय - असुरस्य वीराः [प्रभु के पुत्र]
पदार्थ -
[१] गत मन्त्र की समाप्ति पर समाधिजन्य तुरीयावस्था का संकेत है। इस स्थिति की ओर चलनेवाले लोग (ऋतं शंसन्तः) = ऋतका ही सदा शंसन करते हैं, इनके जीवन से अनृत का उच्चारण नहीं होता। (ऋजु दीध्यानाः) = ये सदा सरलता से कल्याण का ही ध्यान करनेवाले होते हैं, ये कभी किसी के अमंगल का विचार नहीं करते। (दिवः) = ज्ञान के द्वारा ये (पुत्रासः) = [पुंनाति त्रायते] अपने जीवन को पवित्र बनाते हैं और आधि-व्याधियों के आक्रमण से अपना रक्षण करते हैं । (असुरस्य वीराः) = ये उस [ असून् राति] प्राणशक्ति के देनेवाले प्रभु के वीर सन्तान बनते हैं, प्रभु से शक्ति को प्राप्त करके सब बुराइयों को विनष्ट करनेवाले होते हैं । [२] (अंगिरसः) = अंग-प्रत्यंग में रसवाले ये वीर पुरुष (विप्रं पदम्) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले [वि+प्रा] सर्वोच्च स्थान को (दधानाः) = धारण करने के हेतु से (यज्ञस्य) = उस यज्ञरूप प्रभु के (प्रथमं धाम) = सर्वोत्कृष्ट तेज का (मनन्त) = मनन करते हैं। इस प्रभु के तेज को अपना लक्ष्य बना करके ये भी अपने जीवन को यज्ञमय बनाते हैं और उन्नति को प्राप्त करते हुए 'विप्र पद' को धारण करनेवाले बनते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ - ऋत का शंसन करते हुए, प्रभु के तेज का स्मरण करते हुए हम उन्नत होते चलें । शूद्र से वैश्य, वैश्य से क्षत्रिय व क्षत्रिय से विप्र बननेवाले हों ।
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