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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 83/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मन्युस्तापसः देवता - मन्युः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    यस्ते॑ म॒न्योऽवि॑धद्वज्र सायक॒ सह॒ ओज॑: पुष्यति॒ विश्व॑मानु॒षक् । सा॒ह्याम॒ दास॒मार्यं॒ त्वया॑ यु॒जा सह॑स्कृतेन॒ सह॑सा॒ सह॑स्वता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ते॒ । म॒न्यो॒ इति॑ । अवि॑धत् । व॒ज्र॒ । सा॒य॒क॒ । सहः॑ । ओजः॑ । पु॒ष्य॒ति॒ । विश्व॑म् । आ॒नु॒षक् । सा॒ह्याम॑ । दास॑म् । आर्य॑म् । त्वया॑ । यु॒जा । सहः॑ऽकृतेन । सह॑सा । सह॑स्वता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते मन्योऽविधद्वज्र सायक सह ओज: पुष्यति विश्वमानुषक् । साह्याम दासमार्यं त्वया युजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ते । मन्यो इति । अविधत् । वज्र । सायक । सहः । ओजः । पुष्यति । विश्वम् । आनुषक् । साह्याम । दासम् । आर्यम् । त्वया । युजा । सहःऽकृतेन । सहसा । सहस्वता ॥ १०.८३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 83; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] इस सूक्त में ज्ञान को 'मन्यु' इस नाम से स्मरण किया है 'मनु अवबोधे ' । यह ज्ञान गतिशील बनाता है, सो 'वज्र' कहलाता है 'वज गतौ'। यह हमें कर्मों के अन्त तक पहुँचाता है तो सायक है 'षोऽन्तकर्मणि' अथवा बाण की तरह कामादि शत्रुओं का अन्त करनेवाला होने से यह 'सायक' है। हे (वज्र) = हमें गतिशील बनानेवाले, (सायक) = कामादि शत्रुओं का अन्त करनेवाले (मन्यो) = ज्ञान! (यः) = जो (ते अविधत्) = तेरी उपासना करता है, वह व्यक्ति (विश्वम्) = सम्पूर्ण (सह ओजः) = साथ ही उत्पन्न होनेवाले नैसर्गिक ओज को (आनुषक्) = निरन्तर (पुष्यति) = अपने में धारण करता है। इस ज्ञानी का अन्नमयकोष, गतिशीलता व कामविजय के कारण, तेजस्वी होता है और प्राणमयकोष वीर्यवान् बनता है। मनोमयकोष में यह बल व ओजवाला होता है और विज्ञानमयकोष में ज्ञान को धारण करता हुआ आनन्दमयकोष में सहस्वाला होता है। इस प्रकार सब कोशों के स्वाभाविक बल को यह धारण करनेवाला बनता है। [२] हे ज्ञान (त्वया युजा) = तुझ मित्र के साथ (वयम्) = हम (दासम्) = उपक्षय के करनेवाले (आर्यम्) = [ऋ गतौ] हमारे पर आक्रमण करनेवाले शत्रु को (साह्याम) = पराभूत करें। उस तेरे साथ, जो तू (सहस्कृतेन) = सहस् के उद्देश्य से उत्पन्न किया गया है। ज्ञान के होने पर मनुष्य में सहस् की उत्पत्ति होती है। (सहसा) = सहस् से । ज्ञान तो है ही 'सहस्' यह शत्रुओं का पराभव करनेवाला है। (सहस्वता) = सहस्वाला है, यह अवश्य ही कामादि शत्रुओं का मर्षण करेगा।

    भावार्थ - भावार्थ- हम ज्ञानी बनें। ज्ञान के द्वारा कामादि शत्रुओं का पराभव करें।

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