ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
त्वया॑ मन्यो स॒रथ॑मारु॒जन्तो॒ हर्ष॑माणासो धृषि॒ता म॑रुत्वः । ति॒ग्मेष॑व॒ आयु॑धा सं॒शिशा॑ना अ॒भि प्र य॑न्तु॒ नरो॑ अ॒ग्निरू॑पाः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वया॑ । म॒न्यो॒ इति॑ । स॒ऽरथ॑म् । आ॒ऽरु॒जन्तः॑ । हर्ष॑मानासः । धृ॒षि॒ताः । म॒रु॒त्वः॒ । ति॒ग्मऽइ॑षवः । आयु॑धा । स॒म्ऽशिशा॑नाः । अ॒भि । प्र । य॒न्तु॒ । नरः॑ । अ॒ग्निऽरू॑पाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणासो धृषिता मरुत्वः । तिग्मेषव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु नरो अग्निरूपाः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वया । मन्यो इति । सऽरथम् । आऽरुजन्तः । हर्षमानासः । धृषिताः । मरुत्वः । तिग्मऽइषवः । आयुधा । सम्ऽशिशानाः । अभि । प्र । यन्तु । नरः । अग्निऽरूपाः ॥ १०.८४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 84; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
विषय - अग्निरूप नरों का अभिप्रयण
पदार्थ -
[१] हे (मन्यो) = ज्ञान ! (त्वया) = तेरे साथ (सरथम्) = समान रथ पर आरूढ़ हुए हुए (आरुजन्त:) = समन्तात् शत्रुओं को नष्ट करते हुए, (हर्षमाणासः) = आनन्द का अनुभव करते हुए (धृषिताः) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले (नरः) = मनुष्य (अभिप्रयन्तु) = अभ्युदय व निः श्रेयस सम्बन्धी क्रियाओं के प्रति [अभि] गतिवाले हों। [२] (मरुत्वः) = हे प्राणोंवाले [ मन्यो] ज्ञान ! [प्राणसाधना से ही बुद्धि ही तीव्रता होकर ज्ञान की वृद्धि होती है] (तिग्मेषवः) = तीव्र प्रेरणाओं [इषु] वाले, अर्थात् जो प्रभु की प्रेरणा को ठीक से सुनते हैं, (आयुधा संशिशाना:) = इन्द्रिय, मन व बुद्धिरूप आयुधों को [ औजारों को ] तेज करते हुए (अग्निरूपा:) = अग्नि के समान तेजस्वी अथवा उस अग्नि नामक प्रभु के ही छोटे रूप बने हुए ये लोग अभिप्रयन्तु ऐहिक व आमुष्मिक क्रियाओं को करनेवाले हों ।
भावार्थ - भावार्थ - ज्ञान से हम वासना रूप शत्रुओं का नाश करके इहलोक व परलोक की साधक क्रियाओं को ठीक रूप से कर पाते हैं।
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