ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
प्र वः॑ स॒तां ज्येष्ठ॑तमाय सुष्टु॒तिम॒ग्नावि॑व समिधा॒ने ह॒विर्भ॑रे। इन्द्र॑मजु॒र्यं ज॒रय॑न्तमुक्षि॒तं स॒नाद्युवा॑न॒मव॑से हवामहे॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । स॒ताम् । ज्येष्ठ॑तमाय । सु॒ऽस्तु॒तिम् । अ॒ग्नौऽइ॑व । स॒म्ऽइ॒धा॒ने । ह॒विः । भ॒रे॒ । इन्द्र॑म् । अ॒जु॒र्यम् । ज॒रय॑न्तम् । उ॒क्षि॒तम् । स॒नात् । युवा॑नम् । अव॑से । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वः सतां ज्येष्ठतमाय सुष्टुतिमग्नाविव समिधाने हविर्भरे। इन्द्रमजुर्यं जरयन्तमुक्षितं सनाद्युवानमवसे हवामहे॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वः। सताम्। ज्येष्ठतमाय। सुऽस्तुतिम्। अग्नौऽइव। सम्ऽइधाने। हविः। भरे। इन्द्रम्। अजुर्यम्। जरयन्तम्। उक्षितम्। सनात्। युवानम्। अवसे। हवामहे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - सन्ध्या-हवन-प्रार्थना
पदार्थ -
१. तीन वस्तुएँ (सत्) = त्रिकालाबाधित हैं 'प्रकृति-जीव-परमात्मा'। इनमें 'सत् चित् व आनन्द' रूप होने के कारण प्रभु ज्येष्ठतम हैं। (वः सताम्) = तुम सत् वस्तुओं में (ज्येष्ठतमाय) = प्रशस्यतम प्रभु के लिए (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुति को उसी प्रकार मैं (भरे) = धारण करता हूँ (इव) = जैसे कि (समिधाने अग्नौ) = देदीप्यमान अग्नि में (हविः) = हवि देनेवाला बनता हूँ । संक्षेप में, मैं अग्निहोत्र करता हूँ और प्रभु का स्तवन करता हूँ। २. उस प्रभु का स्तवन करता हूँ जो कि (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली मेरे शत्रुओं को विद्रावण करनेवाले हैं। (अजुर्यम्) = कभी जीर्ण नहीं होनेवाले हैं। (जरयन्तम्) = दृढ़से-दृढ़ पदार्थ को व प्रबलतम शत्रुओं को जीर्ण करनेवाले हैं। (उक्षितम्) = शक्ति से सिक्त हैं— भक्तों पर सुखों का सेचन करनेवाले हैं। (सनात्) = सनातन काल से (युवानम्) = बुराइयों को हमारे से दूर करनेवाले अच्छाइयों का हमारे से मिश्रण करनेवाले हैं। इन प्रभु को अवसे रक्षण के लिए हम जो हवामहे पुकारते हैं।
भावार्थ - भावार्थ - हम सन्ध्या करें - हवन करें- प्रभु की प्रार्थना करें।
इस भाष्य को एडिट करें