ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
ऋ॒तं दे॒वाय॑ कृण्व॒ते स॑वि॒त्र इन्द्रा॑याहि॒घ्ने न र॑मन्त॒ आपः॑। अह॑रहर्यात्य॒क्तुर॒पां किया॒त्या प्र॑थ॒मः सर्ग॑ आसाम्॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तम् । दे॒वाय॑ । कृ॒ण्व॒ते । स॒वि॒त्रे । इन्द्रा॑य । अ॒हि॒ऽघ्ने । न । र॒म॒न्ते॒ । आपः॑ । अहः॑ऽअहः । या॒ति॒ । अ॒क्तुः । अ॒पाम् । किय॑ति । आ । प्र॒थ॒मः । सर्गः॑ । आ॒सा॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतं देवाय कृण्वते सवित्र इन्द्रायाहिघ्ने न रमन्त आपः। अहरहर्यात्यक्तुरपां कियात्या प्रथमः सर्ग आसाम्॥
स्वर रहित पद पाठऋतम्। देवाय। कृण्वते। सवित्रे। इन्द्राय। अहिऽघ्ने। न। रमन्ते। आपः। अहःऽअहः। याति। अक्तुः। अपाम्। कियति। आ। प्रथमः। सर्गः। आसाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु की ओर झुकाव कब ?
पदार्थ -
१. (ऋतं कृण्वते) = सृष्टि के प्रारम्भ में अपने तीव्र तप से 'ऋत' को जन्म देनेवाले 'ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत' । देवाय ज्ञान से दीप्त सवित्रे प्रेरणा देनेवाले अथवा सृष्टि उत्पन्न करनेवाले (अहिघ्ने) = वासना को [वृत्र = अहि] विनष्ट करनेवाले (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (आपः) = प्रजाएँ [आपो वै नरसूनवः] (न रमन्ते) = रमण व क्रीड़ावाली नहीं होतीं। सामान्यतः मनुष्यों का झुकाव प्रभु की ओर नहीं होता। जैसे एक बच्चा खिलौने से खेलने में मस्त रहता है-माता को भूल जाता है। इसी प्रकार इस संसार के विषयों में बद्ध हुए हम प्रभु को भूल जाते हैं । २. (अहरहः) = प्रतिदिन (अक्तुः) = प्रकाश की किरण (याति) = मनुष्य को प्राप्त होती है। जैसे सूर्योदय होता है और सूर्य का प्रकाश सर्वत्र फैलता है। पर कितने ही कम वे व्यक्ति हैं जो कि सूर्य के प्रकाश का पूरा लाभ उठाते हैं। इसी प्रकार प्रभु की प्रेरणा सभी के हृदयों में प्राप्त होती है, परन्तु विरले ही व्यक्ति उसे सुनते व उससे लाभ उठाते हैं। ३. (आसाम् अपाम्) = इन प्रजाओं का यह (प्रथमः सर्गः) = मुख्य निश्चय [सर्ग=Determination, Resolve] न जाने (कियात्या) = कितने समय में हो पाएगा। 'हमने संसार के विषयों में न उलझकर प्रभु को ही पाना है' मनुष्य का यह निश्चय सर्वोत्तम है। इस निश्चय के होने में समय लग ही जाता है। कई जन्म बीत जाते हैं 'अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्'। वही दिन सौभाग्य का होगा जिस दिन हम प्रभु को पाने का दृढ़ निश्चय कर
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु का प्रकाश तो हमें सदा प्राप्त होता है, परन्तु हम उसको पाने के लिए कुछ कम उत्सुक होते हैं। यदि हमारा प्रभु की ओर झुकाव हुआ तो हम सचमुच सौभाग्यवाले होंगे।
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