ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
उदु॒ ष्य दे॒वः स॑वि॒ता स॒वाय॑ शश्वत्त॒मं तद॑पा॒ वह्नि॑रस्थात्। नू॒नं दे॒वेभ्यो॒ वि हि धाति॒ रत्न॒मथाभ॑जद्वी॒तिहो॑त्रं स्व॒स्तौ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । स्यः । दे॒वः । स॒वि॒ता । स॒वाय॑ । श॒श्व॒त्ऽत॒मम् । तत्ऽअ॑पाः । वह्निः॑ । अ॒स्था॒त् । नू॒नम् । दे॒वेभ्यः॑ । वि । हि । धाति॑ । रत्न॑म् । अथ॑ । अ॒भ॒ज॒त् । वी॒तिऽहो॑त्रम् । स्व॒स्तौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु ष्य देवः सविता सवाय शश्वत्तमं तदपा वह्निरस्थात्। नूनं देवेभ्यो वि हि धाति रत्नमथाभजद्वीतिहोत्रं स्वस्तौ॥
स्वर रहित पद पाठउत्। ऊँ इति। स्यः। देवः। सविता। सवाय। शश्वत्ऽतमम्। तत्ऽअपाः। वह्निः। अस्थात्। नूनम्। देवेभ्यः। वि। हि। धाति। रत्नम्। अथ। अभजत्। वीतिऽहोत्रम्। स्वस्तौ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - सूर्योदय
पदार्थ -
१. (स्यः) = वह (देवः) = प्रकाशमय (सविता) = प्रेरक [षू प्रेरणे] सूर्य (उ) = निश्चय से (उत् अस्थात्) = ऊपर स्थित हुआ है-उदित हुआ है। यह सूर्य (शश्वत्तमम्) = सदा से (तद् अपा:) = इस प्रेरणात्मक कार्य को करनेवाला है। (वह्निः) = यह सूर्य सबका वोढा है-धारक है । सब लोकों का केन्द्र होता हुआ सबका धारण कर रहा है। इसी से जगत् का नाम ही 'सौर जगत्' (Solar System) हो गया है। २. (नूनं हि) = निश्चय से ही (देवेभ्यः) = क्रीडा की वृत्ति से कर्म करनेवालों के लिए यह सूर्य (रत्नं विधाति) = रमणीय वस्तुओं को विशेष रूप से धारण करता है । (अथ) = और (वीतिहोत्रम्) = 'कान्त यज्ञ को' – सुन्दर यज्ञोंवाले पुरुष को (स्वस्तौ) = कल्याण में (आभजत्) = सर्वथा भागी बनाता है। सूर्योदय होते ही देववृत्ति का बन करके हमें उत्तम यज्ञ आदि कर्मों में प्रवृत्त होना है। यही रत्नों की प्राप्ति व कल्याण का मार्ग है।
भावार्थ - भावार्थ– सूर्य उदित होता है- हमें कर्मों में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है। हमें चाहिए कि देववृत्ति के बनकर सुन्दर यज्ञों में प्रवृत्त हो जाएँ । यही रमणीय वस्तुओं व कल्याण प्राप्ति का मार्ग है।
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