ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
भवा॑ नो अग्ने सु॒मना॒ उपे॑तौ॒ सखे॑व॒ सख्ये॑ पि॒तरे॑व सा॒धुः। पु॒रु॒द्रुहो॒ हि क्षि॒तयो॒ जना॑नां॒ प्रति॑ प्रती॒चीर्द॑हता॒दरा॑तीः॥
स्वर सहित पद पाठभव॑ । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽमनाः॑ । उप॑ऽइतौ । सखा॑ऽइव । सख्ये॑ । पि॒तराऽइव । सा॒धुः । पु॒रु॒ऽद्रुहः॑ । हि । क्षि॒तयः॑ । जना॑नाम् । प्रति॑ । प्र॒ती॒चीः । द॒ह॒ता॒त् । अरा॑तीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
भवा नो अग्ने सुमना उपेतौ सखेव सख्ये पितरेव साधुः। पुरुद्रुहो हि क्षितयो जनानां प्रति प्रतीचीर्दहतादरातीः॥
स्वर रहित पद पाठभव। नः। अग्ने। सुऽमनाः। उपऽइतौ। सखाऽइव। सख्ये। पितराऽइव। साधुः। पुरुऽद्रुहः। हि। क्षितयः। जनानाम्। प्रति। प्रतीचीः। दहतात्। अरातीः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - उपासना के तीन लाभ
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (उपेतौ) = उपासना के होने पर (नः) = हमारे लिए (सुमना: भव) = उत्तम मन को देनेवाले होइये [शोभनं मनो यस्मात्] प्रभु की उपासना का पहला लाभ यह है कि हमारा मन उत्तम होता है। [२] हे प्रभो ! इस उपासना के होने पर आप (साधुः) = इस प्रकार हमारे कार्यों को सिद्ध करनेवाले होते हैं (इव) = जैसे (सखा) = मित्र (सख्ये) = मित्र के लिए कार्यों को सिद्ध करता है और (इव) = जिस प्रकार (पितरा) = माता-पिता पुत्र के कार्यों को सिद्ध करनेवाले होते हैं। [३] हे प्रभो ! (जनानाम्) = लोगों के (क्षितयः) = लोग हि ही (पुरुद्रुहः) = बड़ा द्रोह करनेवाले हैं अतः आप (प्रतीची:) = हमारी ओर आनेवाले (अराती:) = इन शत्रुओं को (प्रतिदहतात्) = एक-एक करके दग्ध करनेवाले हों ।
भावार्थ - भावार्थ - उपासना के तीन लाभ हैं – (क) उत्तम मन की प्राप्ति, (ख) कार्यसिद्धि, (ग) शत्रुदहन (शत्रु विनाश ) ।
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