ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
अ॒यं ते॑ अस्तु हर्य॒तः सोम॒ आ हरि॑भिः सु॒तः। जु॒षा॒ण इ॑न्द्र॒ हरि॑भिर्न॒ आ ग॒ह्या ति॑ष्ठ॒ हरि॑तं॒ रथ॑म्॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ते॒ । अ॒स्तु॒ । ह॒र्य॒तः । सोमः॑ । आ । हरि॑ऽभिः । सु॒तः । जु॒षा॒णः । इ॒न्द्र॒ । हरि॑ऽभिः । नः॒ । आ । ग॒हि॒ । आ । ति॒ष्ठ॒ । हरि॑तम् । रथ॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं ते अस्तु हर्यतः सोम आ हरिभिः सुतः। जुषाण इन्द्र हरिभिर्न आ गह्या तिष्ठ हरितं रथम्॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। ते। अस्तु। हर्यतः। सोमः। आ। हरिऽभिः। सुतः। जुषाणः। इन्द्र। हरिऽभिः। नः। आ। गहि। आ। तिष्ठ। हरितम्। रथम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
विषय - सोमरक्षण से प्रभुप्राप्ति
पदार्थ -
[१] (अयम्) = यह (हर्यतः) = कान्त चाहने योग्य (सोमः) = सोम [वीर्य] (ते अस्तु) = तेरे लिए हो । यह (हरिभिः) = इन्द्रियाश्वों के हेतु से (आसुतः) = समन्तात् उत्पन्न किया गया है। (जुषाण:) = यह सोम तेरे लिए प्रीति का विषय हो । इसका पान तुझे प्रिय हो। इसको शरीर में सुरक्षित करता हुआ तू प्रीति का अनुभव करे। [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! इस सोम का पान करता हुआ तू (हरिभिः) = इन इन्द्रियाश्वों से (नः) = हमें [प्रभु को] (आगहि) = प्राप्त हो । ये इन्द्रियाश्व विषयों में न फँसे रहकर सर्वत्र प्रभु की विभूति को देखनेवाले बनें। तू (हरितं रथम्) = न शुष्क-जिसके अंगप्रत्यंग सूखे काठ की तरह नहीं हो गये, ऐसे शरीर- रथ को (आतिष्ठ) = अधिष्ठित कर तेरा शरीर रसमय अंगोंवाला बना रहे- तू आंगिरस बन । ।
भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण से शरीर का अंग-प्रत्यंग रसवाला बनता है और इस शरीर-रथ पर अधिष्ठित होकर यह सोमपान करनेवाला प्रभु को प्राप्त करता है।
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