ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
सखा॑यस्त्वा ववृमहे दे॒वं मर्ता॑स ऊ॒तये॑। अ॒पां नपा॑तं सु॒भगं॑ सु॒दीदि॑तिं सु॒प्रतू॑र्तिमने॒हस॑म्॥
स्वर सहित पद पाठसखा॑यः । त्वा॒ । व॒वृ॒म॒हे॒ । दे॒वम् । मर्ता॑सः । ऊ॒तये॑ । अ॒पाम् । नपा॑तम् । सु॒ऽभग॑म् । सु॒ऽदीदि॑तिम् । सु॒ऽप्रतू॑र्तिम् । अ॒ने॒हस॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सखायस्त्वा ववृमहे देवं मर्तास ऊतये। अपां नपातं सुभगं सुदीदितिं सुप्रतूर्तिमनेहसम्॥
स्वर रहित पद पाठसखायः। त्वा। ववृमहे। देवम्। मर्तासः। ऊतये। अपाम्। नपातम्। सुऽभगम्। सुऽदीदितिम्। सुऽप्रतूर्तिम्। अनेहसम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु का वरण
पदार्थ -
[१] जीव प्रभु से प्रार्थना करता हुआ कहता है कि हम (मर्तासः) = बारम्बार इस जीवन-मरण के चक्र में फँसनेवाले व्यक्ति (सखायः) = मित्र बनकर ऊतये रक्षा के लिए (देवं त्वा) = सब आवश्यक वस्तुओं के देनेवाले, ज्ञानदीप्त- हमें ज्ञान से दीप्त करनेवाले आपका ववृमहे वरण करते हैं। आपका वरण ही हमें भोगमार्ग से बचाकर योगमार्ग पर प्रवृत्त करेगा, तभी हम जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो पाएँगे। आपके वरण के अतिरिक्त रक्षा का कोई अन्य मार्ग नहीं है । [२] आप (अपां नपातम्) = हमारे शक्तिकणों का नाश न होने देनेवाले हैं। हमें भोगमार्ग से ऊपर उठाकर आप इस योग्य बनाते हैं कि हम शक्तिकणों का रक्षण करनेवाले हों। (सुभगम्) = आप उत्तम भगवाले हैं। आपके वरण से हमें भी यह उत्तम भग प्राप्त होता है। हम भी 'ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान व वैराग्य' रूप भगवाले होते हैं। (सुदीदितम्) = आप उत्तम कर्मोंवाले हैं। आपके उपासन से हमारे भी कर्म उत्तम होते हैं। (सुप्रतूर्तिम्) = आप बहुत अच्छी तरह शत्रुओं का हिंसन करनेवाले हैं। आपका उपासक बनकर मैं काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार कर पाता हूँ । (अनेहसम्) = आप निष्पाप हैं । मैं भी शत्रुओं का संहार करता हुआ अथवा त्वरा से सब कार्यों को सिद्ध करता हुआ पाप से रहित होता हूँ ।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का वरण करें। यह प्रभु का वरण हमें 'शक्तिकणों का रक्षक, उत्तम भगवाला, उत्तम कर्मोंवाला, शत्रुओं को त्वरा से हिंसित करनेवाला तथा निष्पाप' बनाएगा।
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