ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
वि षा॑ह्यग्ने गृण॒ते म॑नी॒षां खं वेप॑सा तुविजात॒ स्तवा॑नः। विश्वे॑भि॒र्यद्वा॒वनः॑ शुक्र दे॒वैस्तन्नो॑ रास्व सुमहो॒ भूरि॒ मन्म॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठवि । सा॒हि॒ । अ॒ग्ने॒ । गृ॒ण॒ते । म॒नी॒षाम् । खम् । वेप॑सा । तु॒वि॒ऽजा॒त॒ । स्तवा॑नः । विश्वे॑भिः । यत् । व॒वनः॑ । शु॒क्र॒ । दे॒वैः । तत् । नः॒ । रा॒स्व॒ । सु॒ऽम॒हः॒ । भूरि॑ । मन्म॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि षाह्यग्ने गृणते मनीषां खं वेपसा तुविजात स्तवानः। विश्वेभिर्यद्वावनः शुक्र देवैस्तन्नो रास्व सुमहो भूरि मन्म ॥२॥
स्वर रहित पद पाठवि। साहि। अग्ने। गृणते। मनीषाम्। खम्। वेपसा। तुविऽजात। स्तवानः। विश्वेभिः। यत्। ववनः। शुक्र। देवैः। तत्। नः। रास्व। सुऽमहः। भूरि। मन्म ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
विषय - सुमहः, भूरि मन्म
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (गृणते) = स्तवन करनेवाले के लिये (मनीषाम्) = बुद्धि को (विषाहि) = [विष्य-विमुञ्च, षोऽन्तकर्मणि] खोलिये, इसके लिये बुद्धि को दीजिये। हे (सुविजात) = महान् विकासवाले प्रभो! आप (स्तवानः) = स्तुति किये जाते हुए (वेपसा) = शत्रुओं को कम्पित करने के द्वारा [वेपृ कम्पने] (खम्) = इन्द्रियों को (विपाहि) = [निष्य विमुञ्च] विषयों से पृथक् करिये। स्तुति करनेवाला उत्तम बुद्धि को प्राप्त करें तथा विषयों में अनासक्त इन्द्रियोंवाला हो । [२] हे (शुक्रः) = दीप्त प्रभो ! (विश्वेभिः देवै:) = सब देवों से (यद् वावन:) = जिस धन के लिये काम याचना किये जाते हैं, (न:) = हमारे लिये (तत्) = उस (सुमहः) = शोभन तेज को तथा (भूरि मन्म) = पालन व पोषण करनेवाले मननीय ज्ञान को (रास्व:) = दीजिये। तेजस्विता व ज्ञान ही वे धन हैं, जो देवों से प्रार्थनीय होते हैं।
भावार्थ - भावार्थ– प्रभु स्तवन से हमें बुद्धि व विषयों में अनासक्त इन्द्रियां प्राप्त हों। प्रभु हमें उत्तम तेज व पालन व पोषण करनेवाला ज्ञान दें।
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