ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
यो मर्त्ये॑ष्व॒मृत॑ ऋ॒तावा॑ दे॒वो दे॒वेष्व॑र॒तिर्नि॒धायि॑। होता॒ यजि॑ष्ठो म॒ह्ना शु॒चध्यै॑ ह॒व्यैर॒ग्निर्मनु॑ष ईर॒यध्यै॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयः । मर्त्ये॑षु । अ॒मृतः॑ । ऋ॒तऽवा॑ । दे॒वः । दे॒वेषु । अ॒र॒तिः । नि॒ऽधायि॑ । होता॑ । यजि॑ष्ठः । म॒ह्ना । शु॒चध्यै॑ । ह॒व्यैः । अ॒ग्निः । मनु॑षः । ई॒र॒यध्यै॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो मर्त्येष्वमृत ऋतावा देवो देवेष्वरतिर्निधायि। होता यजिष्ठो मह्ना शुचध्यै हव्यैरग्निर्मनुष ईरयध्यै ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयः। मर्त्येषु। अमृतः। ऋतऽवा। देवः। देवेषु। अरतिः। निऽधायि। होता। यजिष्ठः। मह्ना। शुचध्यै। हव्यैः। अग्निः। मनुषः। ईरयध्यै॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
विषय - मर्त्येषु अमृतः
पदार्थ -
[१] (यः) = जो (मर्त्येषु अमृतः) = मरणधर्मा प्राणियों में व वस्तुओं में अमर हैं, ऋतावा ऋत का रक्षण करनेवाले हैं, देव:- प्रकाशमय हैं, अरतिः = (ऋ गतौ) निरन्तर गतिशील हैं व ( रतिः) कहीं भी सक्त नहीं हैं 'असक्तं सर्वभृद्वैव', वह प्रभु देवेषु देव वृत्ति के पुरुषों में निधायि=निहित होते हैं । (२) होता- वे प्रभु सब कुछ देनेवाले हैं, यजिष्ठ:- पूज्यतम हैं, महा अपनी महिमा से शुचध्यै- हमारे जीवनों का शोधन करने के लिये होते हैं। ये अग्निः = अग्रणी प्रभु हव्यैः- हव्यों के द्वारा, त्यागपूर्वक अदन के द्वारा मनुष:- विचारशील पुरुषों को ईरयध्यै स्वर्ग की ओर प्रेरित करने के लिये होते हैं। जब एक मनुष्य प्रभु की महिमा का चिन्तन करता है तो उसका हृदय पवित्र होता चलता है। हृदय के पवित्र होने पर यह यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होता है, यह यज्ञ प्रवृत्ति उसके घर को स्वर्ग बनानेवाली होती है।
भावार्थ - भावार्थ– हम देववृत्ति के बनकर हृदय में प्रभु के प्रकाश को देखते हैं। जितना- जितना प्रभु का स्मरण करते हैं, उतना उतना पवित्र होते चलते हैं। पवित्र होकर यज्ञों को करते हुए घरों को स्वर्ग बना पाते हैं ।
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