ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न घा॒ स मामप॒ जोषं॑ जभारा॒भीमा॑स॒ त्वक्ष॑सा वी॒र्ये॑ण। ई॒र्मा पुर॑न्धिरजहा॒दरा॑तीरु॒त वाताँ॑ अतर॒च्छूशु॑वानः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठन । घ॒ । सः । माम् । अप॑ । जोष॑म् । ज॒भा॒र॒ । अ॒भि । ई॒म् । आ॒स॒ । त्वक्ष॑सा । वी॒र्ये॑ण । ई॒र्मा । पुर॑म्ऽधिः । अ॒ज॒हा॒त् । अरा॑तीः । उ॒त । वाता॑न् । अ॒त॒र॒त् । शूशु॑वानः ॥
स्वर रहित मन्त्र
न घा स मामप जोषं जभाराभीमास त्वक्षसा वीर्येण। ईर्मा पुरन्धिरजहादरातीरुत वाताँ अतरच्छूशुवानः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठन। घ। सः। माम्। अप। जोषम्। जभार। अभि। ईम्। आस। त्वक्षसा। वीर्येण। ईर्मा। पुरम्ऽधिः। अजहात्। अरातीः। उत। वातान्। अतरत्। शूशुवानः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
विषय - ईर्मा पुरन्धि
पदार्थ -
[१] प्रभु के गर्भ में रहनेवाले (जोषम्) = प्रीतिपूर्वक प्रभु की उपासना करनेवाले (माम्) = मुझ को (घा) = निश्चय से (सः) = यह चमकीला संसार (न अपजभार) = हर ले जाने में समर्थ नहीं हुआ। मैं (त्वक्षसा) = ज्ञानदीप्त [ त्विषेर्वा दीप्ति कर्मण:] (वीर्येण) = सामर्थ्य से (ईम्) = निश्चयपूर्वक (अभि आस) = इस संसार का अभिभव करनेवाला हुआ हूँ। [२] (ईर्मा) = गतिशील (पुरन्धिः) = पालक व पूरक बुद्धिवाला पुरुष (अराती:) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को (अजहात्) = छोड़नेवाला होता है। गतिशील (बुद्धिमान्) = पुरुष को वासनाएँ नहीं सता पातीं। (उत) = और यह (शूशुवान:) = [शिव गतिवृद्धयोः] गति द्वारा निरन्तर बढ़नेवाला पुरुष (वातान्) = संसार की हवाओं को (अतरत्) = तैर जाता है। यह शूशुवान पुरुष चटक-मटक का गुलाम नहीं बन जाता।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु की उपासना से हम विषयों में नहीं फँसते ।
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