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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उ॒तो हि वां॑ दा॒त्रा सन्ति॒ पूर्वा॒ या पू॒रुभ्य॑स्त्र॒सद॑स्युर्नितो॒शे। क्षे॒त्रा॒सां द॑दथुरुर्वरा॒सां घ॒नं दस्यु॑भ्यो अ॒भिभू॑तिमु॒ग्रम् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒तो इति॑ । हि । वा॒म् । दा॒त्रा । सन्ति॑ । पूर्वा॑ । या । पू॒रुऽभ्यः॑ । त्र॒सद॑स्युः । नि॒ऽतो॒शे । क्षे॒त्र॒ऽसाम् । दा॒द॒थुः॒ । उ॒र्व॒रा॒ऽसाम् । घ॒नम् । दस्यु॑ऽभ्यः । अ॒भिऽभू॑तिम् । उ॒ग्रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतो हि वां दात्रा सन्ति पूर्वा या पूरुभ्यस्त्रसदस्युर्नितोशे। क्षेत्रासां ददथुरुर्वरासां घनं दस्युभ्यो अभिभूतिमुग्रम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उतो इति। हि। वाम्। दात्रा। सन्ति। पूर्वा। या। पूरुऽभ्यः। त्रसदस्युः। निऽतोशे। क्षेत्रऽसाम्। ददथुः। उर्वराऽसाम्। घनम्। दस्युऽभ्यः। अभिऽभूतिम्। उग्रम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे द्यावापृथिवी ! (वाम्) = आप के (दात्रा) = दान (उत उ हि) = निश्चय से पूर्वा हमारा पालन व पूरण करनेवाले सन्ति हैं। (या) = जिनको वस्तुतः (पूरुभ्यः) = अपना पालन व पूरण करनेवाले मनुष्यों के लिए (त्रसदस्युः) = जिन से सब शत्रु भयभीत होते हैं, वे प्रभु नितोशे देते हैं। इन द्यावापृथिवी से संसार के सब लोकों से जो भी पदार्थ हमें प्राप्त होते हैं, उन्हें वास्तव में द्यावापृथिवी द्वारा, प्रभु ही प्राप्त करा रहे हैं। जो भी व्यक्ति पालन व पूरण के कर्मों में प्रवृत्त होते हैं, प्रभु उनके लिए इन वस्तुओं को देते हैं। प्रभु (त्रसदस्य) = हैं। हम प्रभु को अपने हृदयों में आसीन करते हैं, तो वहाँ काम-क्रोध आदि आसुरभावों का प्रवेश नहीं होता। [२] हे द्यावापृथिवी! आप (क्षेत्रासां) = [क्षेत्राणि सनोति इति] सब भूमियों में विचरनेवाले इन्द्रियाश्वों को (ददथुः) = देते हो । (उर्वरासाम्) = [उर्वरां सर्वसस्याढ्यां भुवं सनोति] नये-नये विचारों को जन्म देनेवाली बुद्धि को देते हो। तथा (दस्युभ्यः घनम्) = दस्युओं के विनाश के लिए [दस्युओं के लिये विनाशक] (उग्रम्) = प्रबल (अभिभूतिम्) = अभिभावक बल को देते हो ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभुकृपा से द्यावापृथिवी हमारे लिए पालक व पूरक दानों को देते हैं। उत्तम इन्द्रियाश्वों को, बुद्धि को तथा शत्रु विनाशक तेज को देते हैं ।

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