ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - दधिक्रावा
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
द॒धि॒क्राव्ण॒ इदु॒ नु च॑र्किराम॒ विश्वा॒ इन्मामु॒षसः॑ सूदयन्तु। अ॒पाम॒ग्नेरु॒षसः॒ सूर्य॑स्य॒ बृह॒स्पते॑राङ्गिर॒सस्य॑ जि॒ष्णोः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठद॒धि॒ऽक्राव्णः॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । नु । चा॒र्कि॒रा॒म॒ । विश्वा॑ । इत् । माम् । उ॒षसः॑ । सू॒द॒य॒न्तु॒ । अ॒पाम् । अ॒ग्नेः । उ॒षसः॑ । सूर्य॑स्य । बृह॒स्पतेः॑ । आ॒ङ्गि॒र॒सस्य॑ । जि॒ष्णोः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दधिक्राव्ण इदु नु चर्किराम विश्वा इन्मामुषसः सूदयन्तु। अपामग्नेरुषसः सूर्यस्य बृहस्पतेराङ्गिरसस्य जिष्णोः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठदधिक्राऽव्णः। इत्। ऊम् इति। नु। चर्किराम। विश्वाः। इत्। माम्। उषसः। सूदयन्तु। अपाम्। अग्नेः। उषसः। सूर्यस्य। बृहस्पतेः। आङ्गिरसस्य। जिष्णोः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - जिष्णुसदा विजयी
पदार्थ -
[१] (नु) = अब (इत् उ) = निश्चय से (दधिक्राव्णः) = हमारा धारण करके गति करनेवाले इस मन की (चर्किराम) = हम स्तुति करें। इस मन का महत्त्व समझें । (इत्) = निश्चय से (विश्वाः उषस:) = सब उषाकाल (माम्) = मुझे (सूदयन्तु) = यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रेरित करें। मन को वश में करके हम सदा यज्ञादि कर्मों में ही प्रवृत्त हों। [२] हम इन उषाओं में (अपाम्) = [आप: रेतो भूत्वा०] इन रेत: कणों का स्तवन करें। इनका स्तवन करते हुए इनके रक्षण का निश्चय करें । (अग्नेः) = हम [अग्नि वाग् भूत्वा०] वाणी का उपासन करें। वाणी से भद्र शब्दों को ही बोलने का निश्चय करें। (उषसः) = उषा का स्तवन करें। इस समय प्रबुद्ध होकर सब मलों के दग्ध करने का निश्चय करें [उष दाहे] । (सूर्यस्य) = सूर्य का स्तवन करें-ज्ञानसूर्य को उदित करने के लिए यत्नशील हों। (बृहस्पते:) = बृहस्पतिब्रह्मणस्पति का स्तवन करें। ऊँचे से ऊँचे स्थान में पहुँचने के लिए यत्नशील हों। ऊर्ध्वादिक् के अधिपति बृहस्पति बनें । (आंगिरसस्य) = अंगिरस् के उपासक हों। एक-एक अंग को रसमय-लोचलचकवाला बनाएँ। हमारे अंग सूखे काठ की तरह निर्जीव से न हो जाएँ। (जिष्णोः) = हम जिष्णुविजयशील के उपासक हों। जीवन में सदा विजेता बनें। कभी पराजित न हों।
भावार्थ - भावार्थ- मन को वशीभूत करके हम दिव्य भावनाओं का उपासन करते हुए सदा विजयी बनें।
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