ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
धु॒नेत॑यः सुप्रके॒तं मद॑न्तो॒ बृह॑स्पते अ॒भि ये न॑स्तत॒स्रे। पृष॑न्तं सृ॒प्रमद॑ब्धमू॒र्वं बृह॑स्पते॒ रक्ष॑तादस्य॒ योनि॑म् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठधु॒नऽइ॑तयः । सु॒ऽप्र॒के॒तम् । मद॑न्तः । बृह॑स्पते । अ॒भि । ये । नः॒ । त॒त॒स्रे । पृष॑न्तम् । सृ॒प्रम् । अद॑ब्धम् । ऊ॒र्वम् । बृह॑स्पते । रक्ष॑तात् । अ॒स्य॒ । योनि॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
धुनेतयः सुप्रकेतं मदन्तो बृहस्पते अभि ये नस्ततस्रे। पृषन्तं सृप्रमदब्धमूर्वं बृहस्पते रक्षतादस्य योनिम् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठधुनऽइतयः। सुऽप्रकेतम्। मदन्तः। बृहस्पते। अभि। ये। नः। ततस्रे। पृषन्तम्। सृप्रम्। अदब्धम्। ऊर्वम्। बृहस्पते। रक्षतात्। अस्य। योनिम् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
विषय - स्वाध्याय व दोषनिवारण
पदार्थ -
[१] हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! (ये) = जो (नः) = हमारे में से (धुनेतयः) = [ धुना ईतिर्येषां] शत्रुओं को कम्पित करनेवाली गतिवाले, (सुप्रकेतं मदन्तः) = उत्कृष्ट ज्ञान के साथ आनन्द का अनुभव करते (अभिततस्त्रे) = प्रातः सायं दोनों समय दोषों को अपने से दूर फेंकते हैं [reject, cast], (अस्य) = हमारे में से इस मनुष्य के (योनिम्) = इस बुराइयों के अमिश्रण व अच्छाइयों के मिश्रण के प्रयत्न की (रक्षतात्) = आप रक्षा करें। [२] यह योनि ही (पृषन्तम्) = सब सुखों का सेचन करनेवाली है। (सृप्रम्) = इसे निरन्तर अग्रगति करानेवाली है। (अदब्धम्) = अहिंसित है- इसे हिंसित नहीं होने देती और (ऊर्वम्) = विशाल है। इस प्रातः-सायं दोषनिराकरण के कार्य से ही इसका जीवन सुखसिक्त, अग्रगतिवाला, अहिंसित तथा विशाल बनता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रातः सायं स्वाध्याय में आनन्द लेते हुए दोष-निराकरण के लिए यत्नशील हों। प्रभु कृपा करेंगे और हमारा यह कार्य हमारे लिए सुखवर्षक- उन्नतिकारक, अहिंसक व हमें विशाल बनानेवाला होगा।
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