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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 54/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - सविता छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अभू॑द्दे॒वः स॑वि॒ता वन्द्यो॒ नु न॑ इ॒दानी॒मह्न॑ उप॒वाच्यो॒ नृभिः॑। वि यो रत्ना॒ भज॑ति मान॒वेभ्यः॒ श्रेष्ठं॑ नो॒ अत्र॒ द्रवि॑णं॒ यथा॒ दध॑त् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अभू॑त् । दे॒वः । स॒वि॒ता । वन्द्यः॑ । नु । नः॒ । इ॒दानी॑म् । अह्नः॑ । उ॒प॒ऽवाच्यः॑ । नृऽभिः॑ । वि । यः । रत्ना॑ । भज॑ति । मा॒न॒वेभ्यः॑ । श्रेष्ठ॑म् । नः॒ । अत्र॑ । द्रवि॑णम् । यथा॑ । दध॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभूद्देवः सविता वन्द्यो नु न इदानीमह्न उपवाच्यो नृभिः। वि यो रत्ना भजति मानवेभ्यः श्रेष्ठं नो अत्र द्रविणं यथा दधत् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभूत्। देवः। सविता। वन्द्यः। नु। नः। इदानीम्। अह्नः। उपऽवाच्यः। नृऽभिः। वि। यः। रत्ना। भजति। मानवेभ्यः। श्रेष्ठम्। नः। अत्र। द्रविणम्। यथा। दधत् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 54; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (देवः) = प्रकाशमय (सविता) = प्रेरक प्रभु (नु) = अब (नः) = हमारे लिए (वन्द्यः) = अभिवादनीय व स्तुत्य (अभूत्) = होते हैं । (अह्नः) = दिन के (इदानीम्) = इस समय में जिस भी जीवनयज्ञ के सवन में हमारी स्थिति है, उस समय (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यों से (उपवाच्यः) = वे प्रभु नामस्मरण के योग्य हैं। जीवन का दिन भी 'प्रातः, मध्याह्न, सायं' इन तीन भागों में बटा हुआ है। हम इस दिन के जिस भी समय में हों, अर्थात् बाल्य, युवा व वृद्ध जिस भी अवस्था में हों, सदा उस प्रभु के नाम का जप करते हैं। [२] (यः) = जो प्रभु (मानवेभ्य:) = विचारशील पुरुषों के लिए (रत्ना) = रमणीय धनों को विभजति प्राप्त कराते हैं, वे प्रभु (अत्र) = यहाँ इस जीवन में (नः) = हमारे लिए (श्रेष्ठं द्रविणम्) = उत्तम धनों (यथा) = ठीक रूप में (दधत्) = धारण करें। प्रभु हमें यथायोग्य धनों को प्राप्त कराएँ ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम सदा प्रभुस्मरण - पूर्वक कार्यों में प्रवृत्त रहें। प्रभुकृपा से हमें उत्तम रत्न प्राप्त हों।

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