ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
को व॑स्त्रा॒ता व॑सवः॒ को व॑रू॒ता द्यावा॑भूमी अदिते॒ त्रासी॑थां नः। सही॑यसो वरुण मित्र॒ मर्ता॒त्को वो॑ऽध्व॒रे वरि॑वो धाति देवाः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठकः । वः॒ । त्रा॒ता । व॒स॒वः॒ । कः । व॒रू॒ता । द्यावा॑भूमी॒ इति॑ । अ॒दि॒ते॒ । त्रासी॑थाम् । नः॒ । सही॑यसः । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्र॒ । मर्ता॑त् । कः । वः॒ । अ॒ध्व॒रे । वरि॑वः । धा॒ति॒ । दे॒वाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
को वस्त्राता वसवः को वरूता द्यावाभूमी अदिते त्रासीथां नः। सहीयसो वरुण मित्र मर्तात्को वोऽध्वरे वरिवो धाति देवाः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठकः। वः। त्राता। वसवः। कः। वरूता। द्यावाभूमी इति। अदिते। त्रासीथाम्। नः। सहीयसः। वरुण। मित्र। मर्तात्। कः। वः। अध्वरे। वरिवः। धाति। देवाः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - वसुओं के रक्षक प्रभु
पदार्थ -
[१] हे (वसवः) = अपने निवास को उत्तम बनानेवाले लोगो ! (कः) = वह अनिर्वचनीय प्रभु ही (वः) = आपके (त्राता) = रक्षक हैं । (कः) = वे आनन्दमय प्रभु ही (वरूता) = तुम्हारे सब अशुभों का निवारण करनेवाले हैं। हे (अदिते) = अखण्डनीय (द्यावाभूमी) = द्युलोक व पृथिवीलोक! आप (नः) = हमारा (त्रासीथाम्) = रक्षण करिए। सारा ब्रह्माण्ड हमारे उत्तम निवास के लिए अनुकूल हो। [२] हे (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषो! (कः) = वे प्रभु ही (अध्वरे) = इस जीवन यज्ञ में (वः) = आपके लिए (वरिवः) = ऐश्वर्य को (धाति) = धारण करते हैं। हे (वरुण) = सब अशुभों का निवारण करनेवाले (मित्र) = सब प्रभीतियों [मृत्यु व पापों] से बचानेवाले प्रभो ! (सहीयसः मर्तात्) = हमारा अभिभव करनेवाले मनुष्य से आप हमें रक्षित करिए।
भावार्थ - भावार्थ- हम अपने निवास को उत्तम बनाएँ । प्रभु हमारा रक्षण करेंगे।
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