ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
क्षेत्र॑स्य पते॒ मधू॑मन्तमू॒र्मिं धे॒नुरि॑व॒ पयो॑ अ॒स्मासु॑ धुक्ष्व। म॒धु॒श्चुतं॑ घृ॒तमि॑व॒ सुपू॑तमृ॒तस्य॑ नः॒ पत॑यो मृळयन्तु ॥२॥
स्वर सहित पद पाठक्षेत्र॑स्य । प॒ते॒ । मधु॑ऽमन्तम् । ऊ॒र्मिम् । धे॒नुःऽइ॑व । पयः॑ । अ॒स्मासु॑ । धु॒क्ष्व॒ । म॒धु॒ऽश्चुत॑म् । घृ॒तम्ऽइ॑व । सुऽपू॑तम् । ऋ॒तस्य॑ । नः॒ । पत॑यः । मृ॒ळ॒य॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्षेत्रस्य पते मधूमन्तमूर्मिं धेनुरिव पयो अस्मासु धुक्ष्व। मधुश्चुतं घृतमिव सुपूतमृतस्य नः पतयो मृळयन्तु ॥२॥
स्वर रहित पद पाठक्षेत्रस्य। पते। मधुऽमन्तम्। ऊर्मिम्। धेनुःऽइव। पयः। अस्मासु। धुक्ष्व। मधुऽश्चुतम्। घृतम्ऽइव। सुऽपूतम्। ऋतस्य। नः। पतयः। मृळयन्तु ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
विषय - दूध, घी, माधुर्य, प्रकाश व ऋत
पदार्थ -
[१] हे (क्षेत्रस्य पते) = सब क्षेत्रों के स्वामिन् प्रभो ! (अस्मासु) = हमारे में (मधुमन्तम्) = अत्यन्त मायुर्ध को लिये हुए (ऊर्मिम्) = [Light] प्रकाश को उसी प्रकार (धुक्ष्व) = प्रपूरित करिए, (इव) = जैसे कि (धेनुः) = गौ (पयः) = दूध को हमारे में पूरित करे। कृषि प्रधान जीवन में प्रभु गौवों के द्वारा दूध को प्राप्त कराके हमें सात्त्विक बुद्धिवाला बनाएँगे। इसी सात्त्विक बुद्धि से हमारा जीवन माधुर्य व प्रकाश से परिपूर्ण होगा। [२] (मधुश्चुतम्) = माधुर्य को टपकानेवाले (सुपूतम्) = उत्तम पवित्र (घृतं इव) = घृत की तरह प्रभु हमें माधुर्ययुक्त प्रकाश को भी प्राप्त कराएँ । कृषि प्रधान जीवन में जैसे पवित्र दूध था, उसी प्रकार यह अति पवित्र घृत है। इनके परिणामस्वरूप वहाँ माधुर्य व प्रकाश है । [२] इस कृषि प्रधान जीवन में (ऋतस्य पतयः) = यज्ञों के रक्षक देव (नः) = हमें (मृडयन्तु) = सुखी करें। यहाँ हमारा जीवन यज्ञात्मक बना रहे और अमृत से हम दूर रहें। कृषि के साथ अज्ञान कहीं न आ जाए। यह अज्ञान इस ऋतमय कृषि को 'अमृत' ही बना डालेगा।
भावार्थ - भावार्थ- कृषि प्रधान जीवन में प्रभु हमें उत्तम दूध, पवित्र घृत, माधुर्य व प्रकाश को प्राप्त कराएँ । प्रकाश से परिपूर्ण यह जीवन ऋतमय बना रहे। [अज्ञान तो इसे अमृत बना देगा। उस समय मनुष्य गेहूँ की जगह तम्बाकू ही पैदा करने लगेगा] ।
इस भाष्य को एडिट करें