ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
ऋषिः - सुतम्भर आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यस्ते॑ अग्ने॒ नम॑सा य॒ज्ञमीट्ट॑ ऋ॒तं स पा॑त्यरु॒षस्य॒ वृष्णः॑। तस्य॒ क्षयः॑ पृ॒थुरा सा॒धुरे॑तु प्र॒सर्स्रा॑णस्य॒ नहु॑षस्य॒ शेषः॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठयः । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । नम॑सा । य॒ज्ञम् । ईट्टे॑ । ऋ॒तम् । सः । पा॒ति॒ । अ॒रु॒षस्य॑ । वृष्णः॑ । तस्य॑ । क्षयः॑ । पृ॒थुः । आ । सा॒धुः । ए॒तु॒ । प्र॒ऽसर्स्रा॑णस्य । नहु॑षस्य । शेषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते अग्ने नमसा यज्ञमीट्ट ऋतं स पात्यरुषस्य वृष्णः। तस्य क्षयः पृथुरा साधुरेतु प्रसर्स्राणस्य नहुषस्य शेषः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठयः। ते। अग्ने। नमसा। यज्ञम्। ईट्टे। ऋतम्। सः। पाति। अरुषस्य। वृष्णः। तस्य। क्षयः। पृथुः। आ। साधुः। एतु। प्रऽसस्रर्णास्य। नहुषस्य। शेषः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
विषय - 'पृथुः क्षय:'-'साधुः शेष: '
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = प्रभो ! (यः) = जो (ते) = आपके प्रति (नमसा) = नमन के साथ (यज्ञं ईट्टे) = यज्ञों का आसन करता है, यज्ञशील होता है, (सः) = वह व्यक्ति (अरुषस्य) = आरोचमान (वृष्णः) = शक्तिशाली आपके (ऋतम्) = ऋत का पाति रक्षण करता है। इस ऋत के पालन से वह भी प्रभु की तरह आरोचमान व शक्तिशाली ब्रह्म है। मस्तिष्क में आरोचमान, शरीर में शक्ति सम्पन्न । [२] (तस्य) = उस प्रभु के प्रति नमनवाले, यज्ञशील ऋत के रक्षक पुरुष का (क्षयः) = घर (पृथुः) = विशाल होता है, सब प्रकार से फलता-फूलता है और इस (प्रसर्स्त्राणस्य) = यज्ञादि उत्तम कर्मों में निरन्तर गतिवाले (नहुषस्य) = सबके साथ अपने को बाँधकर चलनेवाले मनुष्य का (शेष:) = सन्तान (आ साधुः) = सब प्रकार से साधु एतु आये । अर्थात् इसके सन्तान सदा उत्तम होते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु के प्रति नमन के साथ हम यज्ञशील हों, ऋत का पालन करें। इससे हम चमकेंगे और शक्तिशाली होंगे। हमारा घर फले-फूलेगा, सन्तान उत्तम स्वभाव के होंगे। अगला सूक्त भी 'सुतम्भर आत्रेय' ऋषि का ही है
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