ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
अ॒ग्नेः स्तोमं॑ मनामहे सि॒ध्रम॒द्य दि॑वि॒स्पृशः॑। दे॒वस्य॑ द्रविण॒स्यवः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नेः । स्तोम॑म् । म॒ना॒म॒हे॒ । सि॒ध्रम् । अ॒द्य । दि॒वि॒ऽस्पृशः॑ । दे॒वस्य॑ । द्र॒वि॒ण॒स्यवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेः स्तोमं मनामहे सिध्रमद्य दिविस्पृशः। देवस्य द्रविणस्यवः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअग्नेः। स्तोमम्। मनामहे। सिध्रम्। अद्य। दिविऽस्पृशः। देवस्य। द्रविणस्यवः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
विषय - 'अग्नि-दिविस्पृग्-देव'
पदार्थ -
[१] (द्रविणस्यवः) = द्रविणों [धनों] की कामनावाले हम (अद्य) = आज (सिध्रम) = सब प्रयोजनों को सिद्ध करनेवाले (स्तोमम्) = स्तोम को, स्तुति को (मनामहे) = मननपूर्वक करते हैं। स्तोम ही सिघ्र है, यह प्रभु स्तवन ही हमारे सब मनोरथों का पूरक है । [२] उस प्रभु के स्तवन को हम करते हैं जो कि (अग्नेः) = अग्रणी हैं, हमें उन्नतिपथ आगे ले-चलनेवाले हैं। (दिविस्पृशः) = सदा ज्ञान के स्पर्श करनेवाले, ज्ञानस्वरूप हैं। (देवस्य) = दिव्यगुणों के पुञ्ज हैं। वे प्रभु हमें भी शरीर के दृष्टिकोण से 'अग्नि', मस्तिष्क के दृष्टिकोण से 'दिविस्पृश' तथा हृदय के दृष्टिकोण से 'देव' बनाते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु स्तवन द्वारा इष्ट द्रविणों को प्राप्त करनेवाले हों। शरीर में अग्नि तत्ववाले, मस्तिष्क में उत्कृष्ट ज्ञानवाले तथा हृदय में देव ही बनें।
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