ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
स हि द्युभि॒र्जना॑नां॒ होता॒ दक्ष॑स्य बा॒ह्वोः। वि ह॒व्यम॒ग्निरा॑नु॒षग्भगो॒ न वार॑मृण्वति ॥२॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । द्युऽभिः॑ । जना॑नाम् । होता॑ । दक्ष॑स्य । बा॒ह्वोः । वि । ह॒व्यम् । अ॒ग्निः । आ॒नु॒षक् । भगः॑ । न । वार॑म् । ऋ॒ण्व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स हि द्युभिर्जनानां होता दक्षस्य बाह्वोः। वि हव्यमग्निरानुषग्भगो न वारमृण्वति ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसः। हि। द्युऽभिः। जनानाम्। होता। दक्षस्य। बाह्वोः। वि। हव्यम्। अग्निः। आनुषक्। भगः। न। वारम्। ऋण्वति ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
विषय - ज्ञान-ज्योति व बाहुबल
पदार्थ -
[१] (सः अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु ! (जनानाम्) = लोगों के लिये (द्युभिः) = ज्ञान-ज्योतियों के साथ (बाह्वोः) = भुजाओं के (दक्षस्य) = बल को होता देनेवाले हैं। हमें ज्ञान व शक्ति प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है। प्रभु कृपा के पात्र वे ही बनते हैं, जो कि 'जन' बनें, अपनी शक्तियों के विकास के लिये यत्नशील हों। [२] वे प्रभु (आनुषक्) = निरन्तर (हव्यम्) = हव्य पदार्थों को (ऋण्वति) = देते हैं [प्रयच्छति] । तथा (भगः न) = ऐश्वर्यशाली के समान (वारम्) = सब वरणीय धनों के देनेवाले हैं। वस्तुत: भुजाओं के बल को देकर वे हमें इस योग्य बना देते हैं कि हम वरणीय धनों का सञ्चय कर सकें तथा ज्ञान को देकर वे हमें इन धनों को हव्य के रूप में प्रयोग करना सिखाते हैं । शक्ति से प्राप्त धन को ज्ञान के कारण हम यज्ञशेष के रूप में ही सेवन करते हैं। धन हमारे यज्ञों के लिये हो जाते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ज्ञान देते हैं, शक्ति देते हैं। हम शक्ति से वरणीय धनों का अर्जन करते हैं और ज्ञान से यज्ञों में उनका विनियोग करते हैं ।
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