ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
ऋषिः - दितो मृतवाहा आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
प्रा॒तर॒ग्निः पु॑रुप्रि॒यो वि॒शः स्त॑वे॒ताति॑थिः। विश्वा॑नि॒ यो अम॑र्त्यो ह॒व्या मर्ते॑षु॒ रण्य॑ति ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒तः । अ॒ग्निः । पु॒रु॒ऽप्रि॒यः । वि॒शः । स्त॒वे॒त॒ । अति॑थिः । विश्वा॑नि । यः । अम॑र्त्यः । ह॒व्या । मर्ते॑षु । रण्य॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रातरग्निः पुरुप्रियो विशः स्तवेतातिथिः। विश्वानि यो अमर्त्यो हव्या मर्तेषु रण्यति ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्रातः। अग्निः। पुरुऽप्रियः। विशः। स्तवेत। अतिथिः। विश्वानि। यः। अमर्त्यः। हव्या। मर्तेषु। रण्यति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु पूजन से दिन का प्रारम्भ
पदार्थ -
[१] हे (विशः) = प्रजाओ ! (प्रातः) = दिन के प्रारम्भ में यह (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (स्तवेत) = तुम्हारे से स्तुति किया जाये। जो प्रभु (पुरुप्रियः) = उत्तमोत्तम वरणीय [हव्य] पदार्थों के द्वारा हमें प्रीणित करनेवाले हैं। (अतिथि:) = [अत सातत्यगमने] हमें सुन्दर प्रेरणाओं को देने के लिये निरन्तर प्राप्त होनेवाले हैं। [२] ये प्रभु वे हैं (यः) = जो कि (अमर्त्यः) = अमरणधर्मा होते हुए (मर्तेषु) = मनुष्यों में (विश्वानि) = सब (हव्या) = हव्य पदार्थों को (रण्यति) = [कामयते] चाहते हैं। हमें प्रभु सब हव्य पदार्थों को प्राप्त कराते हैं, यदि हम अपने को उनका पात्र बनाते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- हम सर्वप्रथम प्रभु का ही स्तवन करें। प्रभु हमारे अतिथि हैं, हमारे लिये सब हव्य - पदार्थों को प्राप्त कराते हैं ।
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