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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
ऋषिः - द्युम्नो विश्वचर्षणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
तम॑ग्ने पृतना॒षहं॑ र॒यिं स॑हस्व॒ आ भ॑र। त्वं हि स॒त्यो अद्भु॑तो दा॒ता वाज॑स्य॒ गोम॑तः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठतम् । अ॒ग्ने॒ । पृ॒त॒ना॒ऽसह॑म् । र॒यिम् । स॒ह॒स्वः॒ । आ । भ॒र॒ । त्वम् । हि । स॒त्यः । अद्भु॑तः । दा॒ता । वाज॑स्य । गोऽम॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमग्ने पृतनाषहं रयिं सहस्व आ भर। त्वं हि सत्यो अद्भुतो दाता वाजस्य गोमतः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठतम्। अग्ने। पृतनाऽसहम्। रयिम्। सहस्वः। आ। भर। त्वम्। हि। सत्यः। अद्भुतः। दाता। वाजस्य। गोऽमतः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
विषय - शत्रुनाशक धन-ज्ञानयुक्त बन
पदार्थ -
(१) हे (सहस्वः) = बलवन् (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (तम्) = उस (रयिम्) = धन को आभर हमारे में सर्वथा धारण करिये जो कि (पृतनाषहम्) = शत्रु सेनाओं को कुचल देनेवाला है। अर्थात् ऐसा धन जो कि विषयों में न फँसकर हमें विषयों से दूर ले जानेवाला है। प्रभु ही हमारे लिये ऐसे धन को प्राप्त कराते हैं। (२) हे प्रभो ! (त्वं हि) = आप ही (सत्यः) = सत्यस्वरूप हैं। (अद्भुत:) = अद्भुत हैं, मनुष्य ज्ञान शक्ति व धनवाले हैं। (गोमतः) = ज्ञान की वाणियोंवाले (वाजस्य) बल के दाता आप देनेवाले हैं। हमारे लिये ज्ञान व बल को प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु शत्रु नाशक धन को देते हैं, ज्ञानयुक्त बल को प्राप्त कराते हैं ।
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