ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
तं त्वा॑ घृतस्नवीमहे॒ चित्र॑भानो स्व॒र्दृश॑म्। दे॒वाँ आ वी॒तये॑ वह ॥२॥
स्वर सहित पद पाठतम् । त्वा॒ । घृ॒त॒स्नो॒ इति॑ घृतऽस्नो । ई॒म॒हे॒ । चित्र॑भानो॒ इति॒ चित्र॑ऽभानो । स्वः॒ऽदृश॑म् । दे॒वान् । आ । वी॒तये॑ । व॒ह॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं त्वा घृतस्नवीमहे चित्रभानो स्वर्दृशम्। देवाँ आ वीतये वह ॥२॥
स्वर रहित पद पाठतम्। त्वा। घृतस्नो इति घृतऽस्नो। ईमहे। चित्रभानो इति चित्रऽभानो। स्वःऽदृशम्। देवान्। आ। वीतये। वह ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
विषय - देवसम्पर्क से अज्ञानन्धकार का विनाश
पदार्थ -
१. हे (घृतस्नो) = ज्ञानदीप्ति के प्रेरक, (चित्रभानो) = अद्भुत ज्ञानरश्मियोंवाले प्रभो ! (स्वर्दृशम्) = सबके देखनेवाले (तं त्वा) = उन आपको हम (ईमहे) = याचना करते हैं। आप हमें भी ज्ञानदीप्ति प्राप्त कराइए । सब ज्ञानों के प्रेरक आप ही तो हैं । २. (वीतये) = सब अज्ञानान्धकारों को विनाश के लिए (देवान्) = 'माता, पिता, आचार्य व अतिथि' रूप देवों को (आवह) = हमें प्राप्त कराइए। हम देवों के सम्पर्क में आकर हमारा अज्ञान नष्ट हो और हम ज्ञान के प्रकाश से उज्ज्वल जीवनवाले बनें। हमारे जीवन में 'सच्चरित्रता-सदाचार- ज्ञान व यज्ञशीलता' को ये देव उत्पन्न करें। इनके द्वारा हमारा जीवन चमक उठे।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु सब ज्ञानों के प्रेरक हैं। प्रभु कृपा से हमें 'उत्तम माता, पिता, आचार्य व अतिथि' रूप देव प्राप्त होते हैं। इनके द्वारा प्रभु हमारे अज्ञानान्धकार को विनष्ट करते हैं।
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