ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 6
ऋषिः - विश्वावारात्रेयी
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ जु॑होता दुव॒स्यता॒ग्निं प्र॑य॒त्य॑ध्व॒रे। वृ॒णी॒ध्वं ह॑व्य॒वाह॑नम् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठआ । जु॒हो॒त॒ । दु॒व॒स्यत । अ॒ग्निम् । प्र॒ऽय॒ति । अ॒ध्व॒रे । वृ॒णी॒ध्वम् । ह॒व्य॒ऽवाह॑नम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ जुहोता दुवस्यताग्निं प्रयत्यध्वरे। वृणीध्वं हव्यवाहनम् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठआ। जुहोत। दुवस्यत। अग्निम्। प्रऽयति। अध्वरे। वृणीध्वम्। हव्यऽवाहनम् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
विषय - आजुहोत-दुवस्यत
पदार्थ -
१. जीवन को हमें यज्ञात्मक बनाना ही चाहिए। इस (अध्वरे प्रयति) = जीवन यज्ञ के प्रकर्षेण चलने पर- 'प्रातः सवन- माध्यन्दिन सवन व तृतीय सवन में' निरन्तर (अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु के प्रति (आजुहोत) = अपनी आहुति देनेवाले बनो! प्रभु के प्रति अर्पण करके ही जीवन में चलना चाहिए। (दुवस्यत) = उस प्रभु की ही उपासना करो- यह प्रभु का उपासन ही हमें शक्तिशाली बनाता है। २. (हव्यवाहनम्) = सब हव्य पदार्थों के देनेवाले उस प्रभु का (वृणीध्वम्) = वरण करो। प्रकृति के वरण की अपेक्षा प्रभु का वरण ही कल्याणकर है। प्रकृति वरण में हम प्रभु से दूर हो जाते और प्रकृति के पाँव तले कुचले जाते हैं। प्रभु वरण में जीवन पवित्र बना रहता है और प्रकृति हमारी सेविका बनी रहती है।
भावार्थ - भावार्थ- हम जीवनयज्ञ में प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें। प्रभु के ही उपासक हों। यह प्रभु का वरण हमें सब हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाला बनाएगा। प्रभु का वरण करनेवाला 'गौरिवीति' बनता है [गौरी-वाक्, वीति-भोजन] वाड्मय शास्त्ररूपी भोजनवाला होता है, विषयों में न फँसने से 'शाक्त्य' शक्ति का पुत्र [ शक्ति का पुतला] बनता है [The body of an athlete and the soul of a sage] यह प्रभु की आराधना करता हुआ कहता
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