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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अमहीयुः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अद॑र्द॒रुत्स॒मसृ॑जो॒ वि खानि॒ त्वम॑र्ण॒वान्ब॑द्बधा॒नाँ अ॑रम्णाः। म॒हान्त॑मिन्द्र॒ पर्व॑तं॒ वि यद्वः सृ॒जो वि धारा॒ अव॑ दान॒वं ह॑न् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अद॑र्दः । उत्स॑म् । असृ॑जः । वि । खानि॑ । त्वम् । अ॒र्ण॒वान् । ब॒द्ब॒धा॒नान् । अर॑म्णाः । म॒हान्त॑म् । इ॒न्द्र॒ । पर्व॑तम् । वि । यत् । वरिति॒ वः । सृ॒जः । वि । धाराः॑ । अव॑ । दा॒न॒वम् । ह॒न्निति॑ हन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदर्दरुत्समसृजो वि खानि त्वमर्णवान्बद्बधानाँ अरम्णाः। महान्तमिन्द्र पर्वतं वि यद्वः सृजो वि धारा अव दानवं हन् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदर्दः। उत्सम्। असृजः। वि। खानि। त्वम्। अर्णवान्। बद्बधानान्। अरम्णाः। महान्तम्। इन्द्र। पर्वतम्। वि। यत्। वरिति वः। सृजः। वि। धाराः। अव। दानवम्। हन्निति हन् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो ! (त्वम्) = आपने (उत्सम्) = ज्ञान प्रवाह को (अदर्द:) = वासना रूप बाँध के विदारण से खोल डाला है और इस प्रकार (खानि) = इन्द्रियों को (वि असृजः) = विषयों से विसृष्ट [पृथक् ] किया है। (बद्बधानान्) = [बाध्यमानान्] वासना से बाधित होते हुए (अर्णवान्) = ज्ञान समुद्रों को, वासना विनाश के द्वारा (अरम्णाः) = फिर रमणवाला [=क्रीड़ावाला] किया है । २. हे इन्द्र वज्र से शत्रुओं का विदारण करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जो अपने (महान्त पर्वतम्) = इस महान् अविद्यापर्वत [पाँच पर्वोंवाली होने से अविद्या पर्वत है] (विवः) = खोल डाला है और (धारा:) = ज्ञान की धाराओं को (विसृजः) = विसृष्ट किया है - बन्धन से मुक्त किया है। इस प्रकार (दानवम्) = दानव वृत्ति कोआसुरवृत्ति को (अवहन्) = विनष्ट किया है। ज्ञान खड्ग से ही विषयदानव का संहार होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु हमारे जीवनों में वासनाबन्धन को विनष्ट करके ज्ञान की धाराओं को प्रवाहित करते हैं ।

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