ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
महि॑ म॒हे त॒वसे॑ दीध्ये॒ नॄनिन्द्रा॑ये॒त्था त॒वसे॒ अत॑व्यान्। यो अ॑स्मै सुम॒तिं वाज॑सातौ स्तु॒तो जने॑ सम॒र्य॑श्चि॒केत॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठमहि॑ । म॒हे । त॒वसे॑ । दी॒ध्ये॒ । नॄन् । इन्द्रा॑य । इ॒त्था । त॒वसे॑ । अत॑व्यान् । यः । अ॒स्मै॒ । सु॒ऽम॒तिम् । वाज॑ऽसातौ । स्तु॒तः । जने॑ । स॒ऽम॒र्यः॑ । चि॒केत॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महि महे तवसे दीध्ये नॄनिन्द्रायेत्था तवसे अतव्यान्। यो अस्मै सुमतिं वाजसातौ स्तुतो जने समर्यश्चिकेत ॥१॥
स्वर रहित पद पाठमहि। महे। तवसे। दीध्ये। नॄन्। इन्द्राय। इत्था। तवसे। अतव्यान्। यः। अस्मै। सुऽमतिम्। वाजऽसातौ। स्तुतः। जने। सऽमर्यः। चिकेत ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - उपासना द्वारा शक्ति व सुमति का लाभ
पदार्थ -
१. (अतव्यान्) = अपनी दुर्बलता को जानता हुआ मैं (नॄन्) = अपने शत्रुभूत, मुझे इधर-उधर लेजानेवाले [नृ नये] काम, क्रोध आदि शत्रुओं को तवसे [तु- Strike] नष्ट करने के लिए (महे तवसे) = उस महान् शक्ति के पुञ्ज (इन्द्राय) = सब शत्रुओं के विदारक प्रभु के दर्शन के लिए (इत्था) = सचमुच (महि दीध्ये) = महान् ज्ञानदीप्ति को अपने अन्दर करने का प्रयत्न करता हूँ। ये प्रभु ही तो मुझे वह बल देंगे जो कि मुझे इन शत्रुओं को जीतने में समर्थ करेगा। २. उस प्रभु को मैं देखने का प्रयत्न करता हूँ (यः) = जो (अर्यः) = सबका स्वामी प्रभु (अस्मै) = इस जने शक्तियों का विकास करनेवाले पुरुष के लिए (वाजसातौ) = संग्राम में (स्तुत:) = स्तुति किया हुआ (सुमतिं संचिकेत) = कल्याणी मति को सम्यक् ज्ञापित करता है। प्रभु से दी गयी इस शुभ मति से ही वस्तुतः हम अपने काम, क्रोध आदि शत्रुओं को पराजित करते हैं। जीवन एक संग्राम है। इसमें हम प्रभु से दी गई कल्याणी मति से ही विजय प्राप्त कर पाते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का ध्यान करते हैं। इससे हमें शक्ति व सुमति प्राप्त होती है और हम शत्रुओं को जीतते हैं ।
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