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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रभूवसुराङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सं भा॒नुना॑ यतते॒ सूर्य॑स्या॒जुह्वा॑नो घृ॒तपृ॑ष्ठः॒ स्वञ्चाः॑। तस्मा॒ अमृ॑ध्रा उ॒षसो॒ व्यु॑च्छा॒न्य इन्द्रा॑य सु॒नवा॒मेत्याह॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । भा॒नुना॑ । य॒त॒ते॒ । सूर्य॑स्य । आ॒ऽजुह्वा॑नः । घृ॒तऽपृ॑ष्ठः । सु॒ऽअञ्चाः॑ । तस्मै॑ । अमृ॑ध्राः । उ॒षसः॑ । वि । उ॒च्छा॒न् । यः । इन्द्रा॑य । सु॒नवा॑म । इति॑ । आह॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं भानुना यतते सूर्यस्याजुह्वानो घृतपृष्ठः स्वञ्चाः। तस्मा अमृध्रा उषसो व्युच्छान्य इन्द्राय सुनवामेत्याह ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। भानुना। यतते। सूर्यस्य। आऽजुह्वानः। घृतऽपृष्ठः। सुऽअञ्चाः। तस्मै। अमृध्राः। उषसः। वि। उच्छान्। यः। इन्द्राय। सुनवाम। इति। आह ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 37; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] मन्त्र का ऋषि 'अत्रि' [काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठनेवाला व्यक्ति] (सूर्यस्य भानुना) = सूर्य की किरण के साथ (संयतते) = सम्यक् यत्नशील होता है, सूर्योदय के साथ ही दैनिक कार्यक्रम में प्रवृत्त हो जाता है। (आजुह्वान:) = अग्निहोत्र के करने के स्वभाववाला होता है । (घृत पृष्ठ:) = [घृतं पृष्ठं यस्य] ज्ञान को अपना आधार बनाता है। (स्वञ्चा:) = उत्तम कर्मों द्वारा प्रभु का पूजन करनेवाला होता है [अञ्चू गतिपूजनयोः] [२] (तस्मा) = उस अत्रि के लिये (अमृध्राः) = अहिंसित होते हुए (उषस:) = उषाकाल (व्युच्छान्) = उदित होते हैं, अन्धकार को दूर करनेवाले होते हैं। ये उषाकाल उसी के लिये (अमृध्राः) = होते हैं (यः) = जो कि (इन्द्राय) = उस प्रभु की प्राप्ति के लिये (सुनवाम) = हम सोम का सवन [उत्पादन] करनेवाले बनें (इति आह) = यह बात बार-बार कहता है। जो अपने को इस सोम-सवन का ही निरन्तर सन्देश देता है। सोम के शरीर में उत्पादन का निश्चय होने पर ही वृत्ति उत्तम बनती है, मनुष्य उस समय वासनाओं से हिंसित नहीं होता।

    भावार्थ - भावार्थ- हमारा जीवन क्रियाशील हो। हम अग्निहोत्र स्वाध्याय व कर्मों द्वारा प्रभु-पूजन करनेवाले बनें । प्रभु प्राप्ति के लिये सोम के स्तवन का निश्चय करते हुए हम अपने को वासनाओं से हिंसित न होने दें।

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