ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
ऋषिः - सदापृण आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
हयो॒ न वि॒द्वाँ अ॑युजि स्व॒यं धु॒रि तां व॑हामि प्र॒तर॑णीमव॒स्युव॑म्। नास्या॑ वश्मि वि॒मुचं॒ नावृतं॒ पुन॑र्वि॒द्वान्प॒थः पु॑रए॒त ऋ॒जु ने॑षति ॥१॥
स्वर सहित पद पाठहयः॑ । न । वि॒द्वान् । अ॒यु॒जि॒ । स्व॒यम् । धु॒रि । ताम् । व॒हा॒मि॒ । प्र॒तर॑णीम् । अ॒व॒स्युव॑म् । न । अ॒स्याः॒ । व॒श्मि॒ । वि॒ऽमुच॑म् । न । आ॒ऽवृत॑म् । पुनः॑ । वि॒द्वान् । प॒थः । पु॒रः॒ऽए॒ता । ऋ॒जु । ने॒ष॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हयो न विद्वाँ अयुजि स्वयं धुरि तां वहामि प्रतरणीमवस्युवम्। नास्या वश्मि विमुचं नावृतं पुनर्विद्वान्पथः पुरएत ऋजु नेषति ॥१॥
स्वर रहित पद पाठहयः। न। विद्वान्। अयुजि। स्वयम्। धुरि। ताम्। वहामि। प्रऽतरणीम्। अवस्युवम्। न। अस्याः। वश्मि। विऽमुचम्। न। आऽवृतम्। पुनः। विद्वान्। पथः। पुरःऽएता। ऋजु। नेषति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
विषय - ऋषिनिरन्तर क्रियाशीलता
पदार्थ -
[१] (विद्वान्) = ज्ञानी पुरुष (हयः न) = गतिशील अश्व के समान स्वयं (धुरि अयुजि) = अपने आप प्रसन्नता से कार्य में युक्त होता है। कार्यधुरा में अपने को प्रसन्नतापूर्वक जोतता है। मैं भी (ताम्) = उस कार्यधुरा को (वहामि) = धारण करता हूँ। यह (प्रतरणीम्) = मुझे तरानेवाली है और (अवस्युवम्) = मेरे रक्षण की कामनावाली है। [२] मैं (अस्याः) = इस कर्त्तव्य धुरा के (न विमुचम्) = न तो खोलने को व न पुन: (आपृतम्) = नां ही फिर-फिर धारण करने को (वश्मि) = चाहता हूँ। बारम्बार कार्य को छोड़ देना व फिर शुरू करना मैं नहीं चाहता। मैं तो कर्त्तव्यकर्म को करता ही हूँ । (विद्वान्) = वह ज्ञानी प्रभु (पुरः एता) = हमारा पुरतो गन्ता होता है, मार्गदर्शक होता है और वह (पथः) = मार्गों को (अजु) = [अकुटिलं यथा स्यात्तथा] अकुटिलता के साथ नेषति प्राप्त कराता है। अर्थात् हमें सरल मार्गों से ले चलता है।
भावार्थ - भावार्थ- निरन्तर कर्त्तव्यकर्मों में लगे रहना ही विषय-वासनाओं के समुद्र से तैरने व अपना रक्षण करने का मार्ग है। प्रभु ही हमारे मार्ग-दर्शक हों, हमें छलछिद्र शून्य सरल जीवन को प्राप्त करायें।
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