ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रतिरथ आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
कदु॑ प्रि॒याय॒ धाम्ने॑ मनामहे॒ स्वक्ष॑त्राय॒ स्वय॑शसे म॒हे व॒यम्। आ॒मे॒न्यस्य॒ रज॑सो॒ यद॒भ्र आँ अ॒पो वृ॑णा॒ना वि॑त॒नोति॑ मा॒यिनी॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठकत् । ऊँ॒ इति॑ । प्रि॒याय॑ । धाम्ने॑ । म॒ना॒म॒हे॒ । स्वऽक्ष॑त्राय । स्वऽय॑शसे । म॒हे । व॒यम् । आ॒ऽमे॒न्यस्य॑ । रज॑सः । यत् । अ॒भ्रे । आ । अ॒पः । वृ॒णा॒ना । वि॒ऽत॒नोति॑ । मा॒यिनी॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कदु प्रियाय धाम्ने मनामहे स्वक्षत्राय स्वयशसे महे वयम्। आमेन्यस्य रजसो यदभ्र आँ अपो वृणाना वितनोति मायिनी ॥१॥
स्वर रहित पद पाठकत्। ऊँ इति। प्रियाय। धाम्ने। मनामहे। स्वऽक्षत्राय। स्वऽयशसे। महे। वयम्। आऽमेन्यस्य। रजसः। यत्। अभ्रे। आ। अपः। वृणाना। विऽतनोति। मायिनी ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - तेजस्विता व प्रज्ञा
पदार्थ -
[१] (कत् उ) = वह शुभ दिन कब होगा जब कि (वयम्) = हम (धाम्ने) = तेजस्विता के लिये (मनामहे) = स्तवन करेंगे? जो तेजस्विता (प्रियाय) = प्रीतिजनक है, (स्वक्षत्राय) = स्वयं क्षतों से त्राण करने में समर्थ है तथा (स्वयशसे) = अपने यश का कारण बनती है और (महे) = महनीय व अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। [२] वह समय कब होगा (यत्) = जब (अभ्रे) = बादल के होने पर भी वासनारूप मेघों के प्रज्ञान सूर्य को आच्छादित करने पर भी (मायिनी) = यह प्रज्ञावती बुद्धि [माया: प्रज्ञा] (आमेन्यस्य) = समन्तात् मातव्य, जिसक प्रकार ज्ञान प्राप्त करना चाहिए उस (रजसः) = लोक समूह के (अप:) = ज्ञान जलों को आवृणाना = - सर्वथा वरण करती हुई हमारे जीवनों में वितनोति प्रकाश को फैलाती है। इस लोक समूह का बुद्धि से ज्ञान प्राप्त करके, इसके यथायोग से ही कल्याण सम्भव है।
भावार्थ - भावार्थ- हमारे जीवन का लक्ष्य यही हो कि हम 'तेजस्विता व प्रज्ञा' का सम्पादन करनेवाले बनें।
इस भाष्य को एडिट करें