ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
को वे॑द॒ जान॑मेषां॒ को वा॑ पु॒रा सु॒म्नेष्वा॑स म॒रुता॑म्। यद्यु॑यु॒ज्रे कि॑ला॒स्यः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठकः । वे॒द॒ । जान॑म् । ए॒षा॒म् । कः । वा॒ । पु॒रा । सु॒म्नेषु॑ । आ॒स॒ । म॒रुता॑म् । यत् । यु॒यु॒ज्रे । कि॒ला॒स्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
को वेद जानमेषां को वा पुरा सुम्नेष्वास मरुताम्। यद्युयुज्रे किलास्यः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठकः। वेद। जानम्। एषाम्। कः। वा। पुरा। सुम्नेषु। आस। मरुताम्। यत्। युयुज्रे। किलास्यः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - प्राणायामैर्दहेद् दोषान्
पदार्थ -
[१] (कः) = कोई विरला पुरुष ही (एषां जानं वेद) = इन प्राणों के प्रादुर्भाव व विकास को जानता है। अर्थात् विरला व्यक्ति ही प्राणसाधना में प्रवृत्त होते हैं और प्राणशक्ति का विकास करते हैं । (वा) = अथवा (कः) = कोई ही (पुरा) = सब से प्रथम (मरुताम्) = इन प्राणों के (सुम्नेषु) = स्तवनों में (आस) = स्थित होता है। अर्थात् विरला व्यक्ति ही प्राणसाधना को सर्वप्राथमिकता देते हैं । सामान्यतः इस प्राणसाधना में प्रवृत्त ही नहीं होते और यदि कोई प्रवृत्त होते भी हैं, तो वे इस प्राणसाधना को सर्वमहत्त्वपूर्ण कार्य नहीं समझते। [२] (यद्) = जब कोई विरला पुरुष इस प्राणसाधना को महत्त्व देता है, तो (किलास्यः) = ये इन्द्रियरूप वडवायें [घोड़ियाँ] (युयुज्रे) = इस शरीर-रथ में जोती जाती हैं, कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ सदा ज्ञानप्राप्ति में लगी रहती हैं।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना में विरले ही मनुष्य प्रवृत्त होते हैं। जब प्रवृत्त होते हैं, तो उनके इन्द्रियाश्व यज्ञों व ज्ञान प्राप्ति में प्रवृत्त रहते हैं। एवं प्राणायाम से इन्द्रियदोषों का दहन हो जाता है।
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