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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प्रय॑ज्यवो म॒रुतो॒ भ्राज॑दृष्टयो बृ॒हद्वयो॑ दधिरे रु॒क्मव॑क्षसः। ईय॑न्ते॒ अश्वैः॑ सु॒यमे॑भिरा॒शुभिः॒ शुभं॑ या॒तामनु॒ रथा॑ अवृत्सत ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रऽय॑ज्यवः । म॒रुतः॑ । भ्राज॑त्ऽऋष्टयः । बृ॒हत् । वयः॑ । द॒धि॒रे॒ । रु॒क्मऽव॑क्षसः । ईय॑न्ते । अश्वैः॑ । सु॒ऽयमे॑भिः । आ॒शुऽभिः॑ । शुभ॑म् । या॒ताम् । अनु॑ । रथाः॑ । अ॒वृ॒त्स॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रयज्यवो मरुतो भ्राजदृष्टयो बृहद्वयो दधिरे रुक्मवक्षसः। ईयन्ते अश्वैः सुयमेभिराशुभिः शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽयज्यवः। मरुतः। भ्राजत्ऽऋष्टयः। बृहत्। वयः। दधिरे। रुक्मऽवक्षसः। ईयन्ते। अश्वैः। सुऽयमेभिः। आशुऽभिः। शुभम्। याताम्। अनु। रथाः। अवृत्सत ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] 'मरुत्' आधिभौतिक जगत् में राष्ट्र रक्षक क्षत्रिय हैं। ये (प्रयज्यवः) = राष्ट्र रक्षणरूप प्रकृष्ट यज्ञ को करनेवाले (मरुतः) = राष्ट्र के लिये [म्रियन्ते] प्राणों को त्यागने के लिये (उद्यत) = सैनिक (भ्राजत् ऋष्टयः) = देदीप्यमान आयुधोंवाले होते हैं। ये (रुक्मवक्षसः) = देदीप्यमान (वक्षः) = स्थलोंवाले क्षत्रिय अथवा दीप्त हारों व पदकों [medals] को धारण किये हुए (वक्षः) = स्थलोंवाले वीर सैनिक (बृहद्वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (दधिरे) = धारण करते हैं । [२] ये (सुयमेभिः) = अच्छी प्रकार (नियन्त्रित आशुभिः) = शीघ्र गतिवाले (अश्वैः) = अश्वों से (ईयन्ते) = राष्ट्र में रक्षण कार्यों के लिये गतिवाले होते हैं। (शुभं याताम्) = सदा धर्म्ययुद्ध की ओर जाते हुए, शुभ की ओर जाते हुए इन मरुतों के (रथाः) = रथ (अनु अवृत्सत) = अनुकूल गतिवाले होते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ– क्षत्रियों को राष्ट्र-रक्षणरूप कार्य को ही अपना यज्ञ समझना, उसके लिये आयुधों को दीप्त रखना और वाहनों को सुनिश्चित व तीव्र गतिवाला रखना। इनके रथ सदा अनुकूल गतिवाले हों।

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