ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 62/ मन्त्र 9
ऋषिः - श्रुतिविदात्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यद्बंहि॑ष्ठं॒ नाति॒विधे॑ सुदानू॒ अच्छि॑द्रं॒ शर्म॑ भुवनस्य गोपा। तेन॑ नो मित्रावरुणावविष्टं॒ सिषा॑सन्तो जिगी॒वांसः॑ स्याम ॥९॥
स्वर सहित पद पाठयत् । बंहि॑ष्ठम् । न । अ॒ति॒ऽविधे॑ । सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू । अच्छि॑द्रम् । शर्म॑ । भु॒व॒न॒स्य॒ । गो॒पा॒ । तेन॑ । नः॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । अ॒वि॒ष्ट॒म् । सिसा॑सन्तः । जि॒गी॒वांसः॑ । स्या॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्बंहिष्ठं नातिविधे सुदानू अच्छिद्रं शर्म भुवनस्य गोपा। तेन नो मित्रावरुणावविष्टं सिषासन्तो जिगीवांसः स्याम ॥९॥
स्वर रहित पद पाठयत्। बंहिष्ठम्। न। अतिऽविधे। सुदानू इति सुऽदानू। अच्छिद्रम्। शर्म। भुवनस्य। गोपा। तेन। नः। मित्रावरुणौ। अविष्टम्। सिसासन्तः। जिगीवांसः। स्याम ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 62; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
विषय - सिषासन्त:-जिगीवांसः
पदार्थ -
[१] (मित्रा वरुणा) = हे मित्र और वरुण देवो, स्नेह व निद्वेषता के भावो! आप (सुदानू) = उत्तमताओं के देनेवाले हो अथवा बुराइयों को अच्छी प्रकार काटनेवाले हो [दाप् लवने] । बुराइयों को काट करके (भुवनस्य गोपा) = सब भुवन के रक्षक हो । वस्तुतः आज मित्र और वरुण की आराधना प्रचलित हो जाए तो युद्धों की इतिश्री ही हो जाये । वैयक्तिक जीवन में भी रोगों की कमी होकर दीर्घजीवन की प्राप्ति सम्भव हो जाये । इन मित्र-वरुण से आराधना करते हुए कहते हैं कि आपका जो (शर्म) = सुख है (तेन) = उसके द्वारा (नः अविष्टम्) = हमारा रक्षण करो। उस सुख के द्वारा (यद्) = जो (बंहिष्ठम्) = [बहु नाम] बहुत अधिक है, बहुत बढ़ा हुआ है, अधिक से अधिक प्राणियों का अधिक से अधिक कल्याण करनेवाला है। (न अतिविधे) = औरों के बहुत पीड़न का कारण नहीं बनता हमारे सुख में दूसरे को कुछ श्रम तो होता ही है। बिना किसी दूसरे के श्रम किये मुझे सुख कैसे मिलेगा ! परन्तु मैं अपने सुख के लिये औरों को अतिशयेन विद्ध करनेवाला न हो जाऊँ । और जो सुख 'अच्छिद्र' निर्दोष है । कई तात्कालिक सुख भविष्य के कष्टों का कारण बन जाते हैं। ये सब ‘सछिद्र' हैं, ‘अच्छिद्र' नहीं। मित्र वरुण से दिया जानेवाला सुख 'अछिद्र' है। [२] हे मित्र वरुण ! हम आपकी आराधना से सदा (सिषासन्तः) = [संभक्तुमिच्छन्तः] धनों को बाँटकर खाने की कामनावाले व (जिगीवांसः) = सदा विजय की कामनावाले हों। संविभाग ही विजय का हेतु है। 'धनों को बाँटकर खाने की वृत्ति' में तो सदा विनाश है। लोभ के विनाश में सब शत्रुओं का जय है। सो विजय ही विजय है ।
भावार्थ - भावार्थ- मित्र और वरुण 'सुदानु' व 'गोप' हैं। इन से दिया गया सुख 'बंहिष्ठ व अछिद्र' है, यह सुख औरों के वेधन का हेतु नहीं बनता। इनकी आराधना से हम 'संविभाग व विजय' वाले बनते हैं। प्रभु की उपासना करनेवाला 'अर्चनाना' अगले सूक्त का ऋषि है -
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