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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 63/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अर्चनाना आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    धर्म॑णा मित्रावरुणा विपश्चिता व्र॒ता र॑क्षेथे॒ असु॑रस्य मा॒यया॑। ऋ॒तेन॒ विश्वं॒ भुव॑नं॒ वि रा॑जथः॒ सूर्य॒मा ध॑त्थो दि॒वि चित्र्यं॒ रथ॑म् ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धर्म॑णा । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । वि॒पः॒ऽचि॒ता॒ । व्र॒ता । र॒क्षे॒थे॒ इति॑ । असु॑रस्य । मा॒यया॑ । ऋ॒तेन॑ । विश्व॑म् । भुव॑नम् । वि । रा॒ज॒थः॒ । सूर्य॑म् । आ । ध॒त्थः॒ । दि॒वि । चित्र्य॑म् । रथ॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेथे असुरस्य मायया। ऋतेन विश्वं भुवनं वि राजथः सूर्यमा धत्थो दिवि चित्र्यं रथम् ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धर्मणा। मित्रावरुणा। विपःऽचिता। व्रता। रक्षेथे इति। असुरस्य। मायया। ऋतेन। विश्वम्। भुवनम्। वि। राजथः। सूर्यम्। आ। धत्थः। दिवि। चित्र्यम्। रथम् ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 63; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    [१] हे (मित्रावरुणा) = स्नेह व निर्देषता के भावो! आप (विपश्चिता) = हमें ज्ञानी बनानेवाले हो । (धर्मणा) = अपने धारणात्मक कर्म से तथा (असुरस्य) = उस सर्वत्र प्राणशक्ति का संचार करनेवाले प्रभु की मायया प्रज्ञा से व्रता (रक्षेथे) = हमारे व्रतों का आप रक्षण करते हो। [२] वस्तुतः ये मित्र और वरुण सब अव्रतों को दूर करते हैं और (ऋतेन) = ऋत के द्वारा (विश्वं भुवनम्) = सम्पूर्ण भुवन को (विराजथः) = दीप्त करते हो । (दिवि) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में (सूर्यम्) = ज्ञानसूर्य को (आधत्थः) = धारण करते हो और इस ज्ञानसूर्य से उदय से चित्र्यम् ज्ञान के प्रकाशवाले, चेतनावाले (रथम्) = शरीररथ को आप धारण करते हो ।

    भावार्थ - भावार्थ- स्नेह व निर्देषता हमें व्रतमय, ऋतमय तथा प्रकाशमय बनाते हैं। अगला सूक्त भी 'अर्चनाना' ऋषि का ही है -

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