ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
ऋषिः - अर्चनाना आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निच्रृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यश्चि॒केत॒ स सु॒क्रतु॑र्देव॒त्रा स ब्र॑वीतु नः। वरु॑णो॒ यस्य॑ दर्श॒तो मि॒त्रो वा॒ वन॑ते॒ गिरः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयः । चि॒केत॑ । सः । सु॒ऽक्रतुः॑ । दे॒व॒ऽत्रा । सः । ब्र॒वी॒तु॒ । नः॒ । वरु॑णः । यस्य॑ । द॒र्श॒तः । मि॒त्रः । वा॒ । वन॑ते । गिरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यश्चिकेत स सुक्रतुर्देवत्रा स ब्रवीतु नः। वरुणो यस्य दर्शतो मित्रो वा वनते गिरः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयः। चिकेत। सः। सुऽक्रतुः। देवऽत्रा। सः। ब्रवीतु। नः। वरुणः। यस्य। दर्शतः। मित्रः। वा। वनते। गिरः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
विषय - 'स्नेह व निर्देषता का उपासक' उपदेष्टा
पदार्थ -
[१] (यः चिकेत) = जो ज्ञानी है (सः) = वह (सुक्रतुः) = शोभनकर्मा होता है। ज्ञान उसके कर्मों को पवित्र करनेवाला होता है। (सः) = वह पवित्र कर्मा ज्ञानी पुरुष (नः) = हमारे लिये (देवत्रा) = देवों के विषय में (ब्रवीतु) = उपदेश दे । [२] वह ज्ञानी हमें उपदेश दे (यस्य) = जिसकी (गिरः) = स्तुतिवाणियों को (दर्शतः) = दर्शनीय, सुन्दर, (वरुण:) = वरुण-निद्वेषता का भाव, (वा) = तथा (मित्रः) = मित्र - स्नेह की देवता (वनते) = प्राप्त करती है। अर्थात् वह ज्ञानी हमारा उपदेष्टा हो जो 'मित्र और वरुण' का उपासक है, स्नेह व निर्देषता के भाववाला है। मनु ने इसीलिए लिखा है कि – 'अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् । वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्माभिधूता' । अर्थात् धर्मोपदेष्टा ने सदा मधुरअकर्कश वाणी के द्वारा ही धर्मोपदेश करना है।
भावार्थ - भावार्थ- ज्ञानी पुरुष सुकर्मा होता है। यह मित्र व वरुण का उपासक होता हुआ देवों [दिव्य भावों] के विषय में उपदेश करता है ।
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