ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 66/ मन्त्र 6
ऋषिः - रातहव्य आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ यद्वा॑मीयचक्षसा॒ मित्र॑ व॒यं च॑ सू॒रयः॑। व्यचि॑ष्ठे बहु॒पाय्ये॒ यते॑महि स्व॒राज्ये॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठआ । यत् । वा॒म् । ई॒य॒ऽच॒क्ष॒सा॒ । मित्रा॑ । व॒यम् । च॒ । सू॒रयः॑ । व्यचि॑ष्ठे । ब॒हु॒ऽपाय्ये॑ । यते॑महि । स्व॒ऽराज्ये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यद्वामीयचक्षसा मित्र वयं च सूरयः। व्यचिष्ठे बहुपाय्ये यतेमहि स्वराज्ये ॥६॥
स्वर रहित पद पाठआ। यत्। वाम्। ईयऽचक्षसा। मित्रा। वयम्। च। सूरयः। व्यचिष्ठे। बहुऽपाय्ये। यतेमहि। स्वऽराज्ये ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 66; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
विषय - 'बहुपाप्य व्यचिष्ठ' स्वराज्य
पदार्थ -
[१] (मित्र) = हे मित्र और वरुण ! आप (ईयचक्षसा) = गतिशील ज्ञानवाले हो । आपके कारण हमारा जीवन गतिशील बनता है और वह सब गति ज्ञानपूर्वक होती है। [२] (वयं च) = और हम आपके द्वारा (सूरयः) = ज्ञानी बनकर (स्वराज्ये) = स्वराज्य के विषय में (यतेमहि) = यत्नशील हों। हम अपना शासन स्वयं करनेवाले हों, विषय वासनाओं के हम गुलाम न हों। यह गुलामी हमें राजनैतिक दृष्टिकोण से भी परतन्त्र बना देगी। हम उस आत्मशासन के लिये यत्नशील हों जो (व्यचिष्ठे) = शक्तियों का अधिक से अधिक विस्तार करनेवाला है तथा (बहुपाप्ये) = बहुत ही रक्षण करनेवाला है या अधिक से अधिक लोगों का रक्षण करनेवाला है। जब मैं अपना अधिष्ठाता होता हूँ, तो मेरे कार्य अधिक-से-अधिक लोगों का कल्याण करनेवाले होते हैं। =
भावार्थ - भावार्थ- मित्र और वरुण की आराधना से हम ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाले हों। इस प्रकार आत्मशासन करते हुए हम अपनी शक्तियों को बढ़ाएँ और अधिक से अधिक लोगों का हित करनेवाले हों ।इस 'बहुपाप्य स्वराज्य' के लिये यत्नशील व्यक्ति 'यजत' बनता है, सब के साथ संगतिकरण (मेल) वाला । यह कहता है
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