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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 73/ मन्त्र 1
    ऋषिः - बाहुवृक्त आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    यद॒द्य स्थः प॑रा॒वति॒ यद॑र्वा॒वत्य॑श्विना। यद्वा॑ पु॒रू पु॑रुभुजा॒ यद॒न्तरि॑क्ष॒ आ ग॑तम् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒द्य । स्थः॒ । पा॒रा॒ऽवति॑ । यत् । आ॒र्वा॒ऽवति॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । यत् । वा॒ । पु॒रु । पु॒रु॒ऽभु॒जा॒ । यत् । अ॒न्तरि॑क्षे । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदद्य स्थः परावति यदर्वावत्यश्विना। यद्वा पुरू पुरुभुजा यदन्तरिक्ष आ गतम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अद्य। स्थः। पराऽवति। यत्। अर्वाऽवति। अश्विना। यत्। वा। पुरु। पुरुऽभुजा। यत्। अन्तरिक्षे। आ। गतम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 73; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे अश्विना = प्राणापानो! (यद्) = यदि (अद्य) = आज (परावति स्थ:) = आप सुदूर स्थान में हो, मस्तिष्करूप द्युलोक में आपका निवास है। अथवा (यद्) = यदि (अर्वावति) = यहाँ समीप में, शरीररूप पृथिवीलोक में आपका निवास है, तो आप (आगतम्) = हमें प्राप्त होवो । वस्तुतः मस्तिष्करूप द्युलोक व शरीररूप पृथिवीलोक को प्राणापान ने ही निर्दोष बनाना है। [२] (यद् न) = अथवा यदि (पुरू) = शरीर के अन्य बहुत से प्रदेशों में (पुरुभुजा) = खूब ही पालन करनेवाले हो और (यद्) = यदि (अन्तरिक्षे) = हृदयरूप अन्तरिक्ष में आपका निवास है तो वहाँ से हमें प्राप्त होवो । वस्तुतः प्रभु ने शरीर में सर्वप्रथम मस्तिष्क, अर्थात् विज्ञानमयकोश की दीप्ति के लिये इन प्राणापान की स्थापना की है [परावति] । इधर अन्नमयकोश का स्वास्थ्य भी इन्हीं पर निर्भर करता है [अर्वावति] । शरीर के अन्य अंगों को ये प्राण ही शक्ति देते हैं [पुरुभुजा] तथा हृदयान्तरिक्ष को, मनोमयकोश को इन्होंने ही पवित्र करना है [अन्तरिक्षे] ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणापान मेरे शरीर की त्रिलोकी को व अन्य सब अंगों को पवित्र करनेवाले हों।

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