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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अमहीयुः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आ भा॑त्य॒ग्निरु॒षसा॒मनी॑क॒मुद्विप्रा॑णां देव॒या वाचो॑ अस्थुः। अ॒र्वाञ्चा॑ नू॒नं र॑थ्ये॒ह या॑तं पीपि॒वांस॑मश्विना घ॒र्ममच्छ॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । भा॒ति॒ । अ॒ग्निः । उ॒षसा॑म् । अनी॑कम् । उत् । विप्रा॑णाम् । दे॒व॒ऽयाः । वाचः॑ । अ॒स्थुः॒ । अ॒र्वाञ्चा॑ । नू॒नम् । र॒थ्या॒ । इ॒ह । या॒त॒म् । पी॒पि॒ऽवांस॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । घ॒र्मम् । अच्छ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ भात्यग्निरुषसामनीकमुद्विप्राणां देवया वाचो अस्थुः। अर्वाञ्चा नूनं रथ्येह यातं पीपिवांसमश्विना घर्ममच्छ ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। भाति। अग्निः। उषसाम्। अनीकम्। उत्। विप्राणाम्। देवऽयाः। वाचः। अस्थुः। अर्वाञ्चा। नूनम्। रथ्या। इह। यातम्। पीपिऽवांसम्। अश्विना। घर्मम्। अच्छ ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 76; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (उषसाम्) = उषाकालों का (अनीकम्) = मुखरूप, अर्थात् उषाओं में सर्वप्रथम प्रबुद्ध किया जानेवाला (अग्निः) = अग्नि (आभाति) = दीप्त होता है। उस समय (विप्राणाम्) = ज्ञानी पुरुषों की (देवयाः वाचः) = उस देव की ओर हमें ले जानेवाली वाणियाँ (उद् अस्थुः) = उत्त्थित होती हैं। अर्थात् ज्ञानी पुरुष अग्निहोत्र के लिये अग्नि को समिद्ध करते हैं और प्रभु के स्तवन के लिये ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करते हैं। [२] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (नूनम्) = निश्चय से इह यहाँ (अर्वाञ्चा) = हमारे अभिमुख (यातम्) = प्राप्त होवो । (रथ्या) = आप इस शरीर- रथ को उत्तम बनानेवाले हो । आप हमें (पीपिवांसम्) = आप्यायित होती हुई (घर्मं अच्छ) = शक्ति की उष्णता की ओर ले चलते हो ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रातः अग्निहोत्र करें, प्रभु का स्तवन करें और प्राणायाम में प्रवृत्त हों। यह प्राणायाम हमारी शक्ति का वर्धन करे और हमारे शरीर-रथ को उत्तम बनानेवाला हो ।

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