ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 77/ मन्त्र 1
प्रा॒त॒र्यावा॑णा प्रथ॒मा य॑जध्वं पु॒रा गृध्रा॒दर॑रुषः पिबातः। प्रा॒तर्हि य॒ज्ञम॒श्विना॑ द॒धाते॒ प्र शं॑सन्ति क॒वयः॑ पूर्व॒भाजः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒तः॒ऽयावा॑ना । प्र॒थ॒मा । य॒ज॒ध्व॒म् । पु॒रा । गृध्रा॑त् । अर॑रुषः । पि॒बा॒तः॒ । प्रा॒तः । हि । य॒ज्ञम् । अ॒श्विना॑ । द॒धाते॒ इति॑ । प्र । शं॒स॒न्ति॒ । क॒वयः॑ । पू॒र्व॒ऽभाजः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रातर्यावाणा प्रथमा यजध्वं पुरा गृध्रादररुषः पिबातः। प्रातर्हि यज्ञमश्विना दधाते प्र शंसन्ति कवयः पूर्वभाजः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्रातःऽयावाना। प्रथमा। यजध्वम्। पुरा। गृध्रात्। अररुषः। पिबातः। प्रातः। हि। यज्ञम्। अश्विना। दधाते इति। प्र। शंसन्ति। कवयः। पूर्वऽआजः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 77; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - प्रातर्यावाणा प्रथमा -
पदार्थ -
[१] (प्रातर्यावाणा) = प्रातः काल से ही गतिवाले (प्रथमा) = शक्तियों का विस्तार करनेवाले इन अश्विनी देवों का (यजध्वम्) = उपासन करो। प्राणापान हमें निरन्तर गतिशील बनाते हैं और हमारी शक्तियों का विस्तार करते हैं। (पुरा) = पूर्व इसके कि (गृध्रात्) = लोभ की वृत्ति और (अररुषः) = अपार [कृपणता] की वृत्ति (पिबातः) = हमारी शक्तियों को पी जायें, हम इन प्राणापान की आराधना करें। इनकी आराधना से ये लोभ व कृपणता की वृत्तियाँ हमारे में पनपेगी ही नहीं। लोभ आदि वृत्तियों के अभाव में सोम का रक्षण सुगम होता है। [२] (अश्विना) = ये प्राणापान (प्रातः) = (सवेरे) = सवेरे ही (हि) = निश्चय से (यज्ञं दधाते) = यज्ञ का धारण करते हैं। प्राणसाधना से हमारी वृत्ति यज्ञिय बनती है। इन प्राणों के साथ टकराकर सब आसुरभाव चकनाचूर हो जाते हैं। इसीलिए (पूर्वभाज:) = पूर्वता के, पूरणता के उपासक (कवयः) = ज्ञानी लोग (प्रशंसन्ति) = इन प्राणापान का शंसन करते हैं । वस्तुतः इस प्राणसाधना के द्वारा ही वे अपना पूरण करते हैं और इसी से ज्ञानवृद्धि को भी प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना सब आसुरभावों को विनष्ट करके हमें सोमरक्षण के योग्य बनाती है। इससे हमारी वृत्ति यज्ञिय बनती है।
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